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श्री आचाराङ्ग सूत्र, प्रथम श्रुतस्कंध
जो व्यक्ति वायुकाय का समारम्भ करता है, वह उसके स्वरूप को भलीभांति नहीं जानता है। इसी कारण वह उसकी हिंसा में प्रवृत्त होता है। परन्तु जिस व्यक्ति को वायु के आरम्भ का स्वरूप परिज्ञात है, वह उसके आरम्भ में प्रवृत्त नहीं होता। इसलिए वही मुनि परिज्ञातकर्मा कहा गया है। यह प्रस्तुत सूत्र का तात्पर्य है। 'त्ति बेमि' का अर्थ पूर्ववत् जानना चाहिए। ___प्रथम अध्ययन के सात उद्देशकों में सामान्य रूप से आत्मा और कर्म के संबन्ध का तथा छह उद्देशकों में पृथक्-पृथक् रूप से षट्काय का वर्णन करके अब उपसंहार के रूप में सूत्रकार षट्काय के स्वरूप का एवं उसकी हिंसा से निवृत्त होने का उपदेश देते हुए कहते हैं
मूलम्-एत्थंपि जाणे उवादीयमाणा, जे आयारे ण रमंति, आरंभमाणा विणयं वयंति, छंदोवणीया अज्झोववण्णा, आरम्भसत्ता पकरंति संग॥61॥
छाया-एतस्मिन्नपि जानीहि उपादीयमानान् ये आचारे न रमन्ते, आरंभमाणा विनयं वदन्ति, छन्दसा उपनीताः अध्युपपन्नाः आरंभसक्ताः प्रकुर्वन्ति संगम्।
पदार्थ-एत्थंपि-वायुकाय एवं अन्य पृथ्वी आदि छह काय का जो आरंभ करते हैं, वे। उवादीयमाणा-कर्मों से आबद्ध होते हैं। जाणे-हे शिष्य तू! इस बात को देख कि आरंभ कौन करते हैं? जे आयारे ण रमंति-जो आचार-ज्ञानाचार, दर्शनाचार, चारित्राचार, तपाचार एवं वीर्याचार में रमण नहीं करते, और। आरंभमाणा-आरंभ करते हुए। विणयं-हम संयम में स्थित हैं, इस प्रकार। वयंति-बोलते हैं। छंदोवणीया-वे अपने विचारानुसार स्वेच्छा से विचरण करने वाले। अज्झोववण्णा-विषयों में आसक्त हो रहे हैं, तथा। आरंभासत्ता-आरंभ में आसक्त हैं, ऐसे प्राणी। पकरंति संगं-आत्मा के साथ अष्टकर्मों का संग करते हैं अर्थात् अष्टकर्मों से आबद्ध होकर संसार में परिभ्रमण करते हैं।
मूलार्थ-हे शिष्य! तू इस बात को भली-भांति जान ले कि जो जीव छह काय का आरंभ करते हैं, वे कर्मों से आबद्ध होकर संसार में परिभ्रमण करते हैं। और वे ही जीव हिंसा में प्रवृत्त होते हैं, जो पंचाचार में रमण नहीं करते हैं, वे स्वेच्छाचारी