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श्री आचाराङ्ग सूत्र, प्रथम श्रुतस्कंध
विशिष्ट त्यागी एवं वास्तविक अनगार कहा जाए तो इसमें कोई अतिशयोक्ति नहीं है और न किसी सम्प्रदाय के साधु की अवहेलना करने का ही भाव है ।
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“एस अणगारो त्ति पवुच्चई " का अर्थ है - जो साधक वनस्पतिकाय की हिंसा से निवृत्त है, किसी भी प्राणी को भय नहीं देता है, वही अनगार कहा गया है।
अनगार के स्वरूप का वर्णन करके अब सूत्रकार संसार एवं संसार - परिभ्रमण के कारण के सम्बन्ध में कहते हैं
मूलम् - जे गुणे से आवट्टे, जे आवट्टे से गुणे ॥ 41 ॥
छाया - यो गुणः स आवर्त्तः, य आवर्त्तः स गुणः ।
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पदार्थ - जे- जो । गुणे - शब्दादि गुण हैं । से - वही । आवट्टे - आवर्त्त - संसार है । जे - जो । आवट्टे -संसार है । से - वही । गुणे - गुण है ।
मूलार्थ - जो शब्दादि गुण है, वास्तव में वही संसार है और जो संसार है, वास्तव में वही गुण है।
हिन्दी - विवेचन
यह संसार क्या है? इसके संबन्ध में दार्शनिकों एवं विचारकों के मन में प्रश्न उठता रहा, तर्क-वितर्क होता रहा है । परन्तु संसार के वास्तविक स्वरूप को जानने में सफलता नहीं मिली । प्रस्तुत सूत्र में सूत्रकार ने इसका वास्तविक समाधान किया है। सूत्रकार के शब्दों में हम देख चुके हैं कि शब्दादि गुण ही संसार है और संसार ही गुण हैं । इस तरह संसार और गुण का पारस्पारिक कार्यकारण भाव है।
जो श्रोत्र, चक्षु, घ्राण, रसना और स्पर्शन इन पांचों इन्द्रियों के शब्द, रूप, रस गन्ध और स्पर्श ये पांच विषय हैं, उन्हें गुण कहते हैं और आवर्त्त संसार का परिबोधक है - आवर्त्तन्ते - परिभ्रमन्ति प्राणिनो यत्र स आवर्त्तः - संसारः' अर्थात् जिसमें प्राणियों का आवर्त्त - परिभ्रमण होता रहे उसे आवर्त - संसार कहते हैं ।
शब्दादि विषय संसार - परिभ्रमण के कारण है, क्योंकि इनसे कर्म का बन्ध होता और कर्म-बन्ध के कारण आत्मा संसार में परिभ्रमण करती है । इस तरह ये विषय या गुण संसार का कारण हैं और शब्दादि गुणों से कर्म बंधते हैं, कर्म से आत्मा में