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प्रथम अध्ययन, उद्देशक 5
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नहीं है। इसी बात को स्पष्ट करने के लिए सूत्रकार ने 'तं णे करिस्सामि' के साथ 'मत्ता' पद का उल्लेख किया। इससे स्पष्ट हो जाता है कि आचार में ज्ञान के साथ ही तेजस्विता आती है, चमक बढ़ती है। अस्तु, ज्ञान और क्रिया या आचार और विचार का समन्वय ही मोक्ष-मार्ग है, अपवर्ग की राह है।
ज्ञानपूर्वक किए जाने वाले त्याग को ही त्याग कहने के पीछे एक मात्र यही उद्देश्य रहा हुआ है कि जब तक व्यक्ति वस्तु के हेय-उपादेय स्वरूप को भली-भांति नहीं जान लेता है, तब तक वह उसका परित्याग या स्वीकार नहीं कर पाता और कभी भावावेश या किसी प्रलोभन में आकर त्याग कर भी देता है, तो उसका सम्यक्तया परिपालन नहीं कर पाता, क्योंकि उसके गुण-दोष एवं स्वरूप से अनभिज्ञ होने के कारण वह अपने लक्ष्य से च्युत हो जाता है, भटक जाता है। अस्तु त्याग के पूर्व जीवाजीव का ज्ञान होना जरूरी है। यही बात प्रस्तुत सूत्र में बताई गई है।
इसके अतिरिक्त यह भी बताया गया है कि वनस्पति जीवों के आरम्भ-समारम्भ से सर्वथा निवृत्त एवं पूर्ण त्यागी मुनि जिन मार्ग में ही उपलब्ध होते हैं, यह बात “तत्थोवरए-एतस्मिन्नुपरतः पद से अभिव्यक्त की है। टीकाकार ने इसकी व्याख्या करते हुए लिखा है-“एतस्मिन्नेव जैनेन्द्रे प्रवचने परमार्थत उपरतो नान्यत्र" इसका तात्पर्य यह नहीं है कि जैनेतर संप्रदाय के साधु-मुनि त्यागी होते ही नहीं। हम इस बात को मानते हैं कि धन-वैभव एवं गृहस्थ के त्यागी सन्त जैनेतर संप्रदायों में भी मिलते हैं और प्रायः सभी संप्रदायों के धर्म-ग्रन्थों में त्याग-प्रधान मुनि जीवन का विधान भी मिलता है। परन्तु आरम्भ-समारम्भ के कार्यों से जितनी निवृत्ति एवं त्याग जिन मार्ग पर गतिशील मुनियों में पाया जाता है, उतना अन्यत्र नहीं मिलता। यह हम पहले भी बता चुके हैं कि पृथ्वी, पानी आदि एकेन्द्रिय जीवों की रक्षा में सावधानी एवं विवेक जैनेतर संप्रदाय के साधुओं में नहीं पाया जाता। अतः उत्कट त्यागवृत्ति को जीवन में साकार रूप देने वाले तथा सावध कार्यों से सर्वथा निवृत्त साधुओं को
1. नाणं किरियारहियं किरिया मेत्तं च दोऽवि एगतो।
न समत्था दाउं जे जम्ममरण-दुक्ख-दाहाई॥ 2. इस बात को हम अग्निकाय के प्रकरण में भगवती सूत्र का उदाहरण देकर स्पष्ट
कर चुके हैं।