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प्रथम अध्ययन, उद्देशक 4
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परित्याग करना चाहिए। इसी बात की प्रेरणा देते हुए अगले सूत्र में कहा है
* मूलम्-एत्थ सत्थं समारंभमाणस्स इच्चेते आरंभा अपरिण्णाया भवंति, एत्थ सत्थं असमारंभमाणस्स इच्चेते आरंभा परिण्णाया भवंति, तं परिण्णाय मेहावी व सयं अगणिसत्थं समारंभेज्जा, नेवऽण्णेहिं अगणिसत्थं समारंभावेज्जा, अगणिसत्थं समारंभमाणे अण्णे ण समणुजाणेज्जा जस्सेते अगणिकम्म समारंभा परिणणाया भवंति से हु मुणी परिण्णायकम्मे-त्तिबेमि॥39॥ ___ छाया-अत्र शस्त्रं समारम्मणस्य इत्येते आरम्भाः अपरिज्ञाताः भवंति, अत्र शस्त्रमसमारंभमाणस्य इत्येते आरम्भाः परिज्ञाताः भवंति, तत् परिज्ञाय मेधावी नैव स्वयं अग्निशस्त्रं समारभेत् नैवान्यैः अग्निशस्त्रं समीरम्भयेत्, अग्नि शस्त्रं समारंभमाणान् अन्यान् न समनुजानीयात् यस्यैते अग्निकर्म समारम्भाः परिज्ञाताः भवन्ति सः खलु मुनिः परिज्ञातकर्मा इति ब्रवीमि।
पदार्थ-एत्थ-अग्निकाय के विषय में। सत्थं-स्वकाय और परकाय रूप . शस्त्र का। समारंभमाणस्स-समारम्भ करने वाले को। इच्चेते-ये। आरंभा-आरंभ। अपरिण्णाया भवंति-अपरिज्ञात होते हैं। एत्थ सत्थं असमारंभ माणस्सअग्निकाय का समारम्भ न करने वाले को ये समारम्भ। इच्चेते-ये। आरंभा-आरंभ। परिण्णाया- भवंति-कर्मबन्ध के हेतु परिज्ञात होते हैं। तं-उस अग्नि-समारंभ को। परिण्णाय- परिज्ञात करके। मेहावी-बुद्धिमान। णेव-नहीं। सयं-स्वयमेव। अगणिसत्थं- अग्नि-शस्त्र का। समारंभेज्जा-समारंभ करे। णेवऽण्णेहिं-न अन्य से। अगणिसत्थं-अग्नि-शस्त्र का। समारंभावेज्जा-समारंभ करावे। अगणिसत्थंअग्नि-शस्त्र का। समारंभमाणे-समारंभ करने वाले। अण्णे-अन्य व्यक्ति का। न समणुजाणेज्जा-अनुमोदन भी न करे। जस्सेते-जिसके ये। अगणि कम्मसमारंभा-अग्नि-कर्म-समारंभ। परिण्णाया-परिज्ञात। भवंति-होते हैं। से हु मुणी-निश्चय पूर्वक वही मुनि। परिण्णायकम्मे-परिज्ञातकर्मा है। त्तिबेमि-ऐसा मैं कहता हूँ।