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________________ 178 श्री आचाराङ्ग सूत्र, प्रथम श्रुतस्कंध का कारण है। एस खलु-यह निश्चय ही। णरए-नरक का कारण है। इच्चत्यं-इस अर्थ के लिए। गढिए-मूर्छित। लोए-लोक हैं। जमिणं-जो यह प्रत्यक्ष। विरूवरूवेहि-नाना प्रकार के। सत्येहि-शस्त्रों से। अगणि- कम्मसमारंभमाणे-अग्नि का समारम्भ करते हुए। अण्णे-अन्य। पाणे-प्राणियों की भी। विहिंसइ-हिंसा करते हैं। मूलार्थ-हे जम्बू! तू इन विभिन्न धर्मानुयायियों को देख, जो स्वागमानुसार साधु-क्रिया करके लज्जित होते हुए भी अपने आप को अनगार कहते हैं। यह स्पष्ट है कि वे विभिन्न शस्त्रों से, अग्निकर्म-समारंभ से अग्निकायिक जीवों एवं अन्य अनेक तरह के त्रस-स्थावर जीवों की हिंसा करते हैं। अतः भगवान ने परिज्ञा-विशिष्ट ज्ञान से यह प्रतिपादन किया है कि प्रमादी जीव इस क्षणिक जीवन के लिए, प्रशंसा-मान-सम्मान एवं पूजा पाने के हेतु, जन्म-मरण से छुटकारा पाने की अभिलाषा से तथा शारीरिक एवं मानसिक दुःखों के विनाशार्थ स्वयं अग्नि का आरंभ करते हैं, दूसरे व्यक्ति से कराते हैं और करने वाले को अच्छा समझते हैं। परन्तु यह समारम्भ उनके लिए अहितकर है, अबोध का कारण है। इस प्रकार भगवान से या अनागारों से सुन कर सम्यक्बोध को प्राप्त हुए किसी-किसी व्यक्ति को यह ज्ञात हो जाता है कि यह अग्नि-समारंभ अष्ट कर्मों की गांठ है, यह मोह का कारणं है, यह मृत्यु का कारण है और यह नरक का भी कारण है। फिर भी विषय-भोगों में मूर्छित-आसक्त व्यक्ति अग्निकाय के समारम्भ से निवृत्त नहीं होता। वह प्रत्यक्ष रूप से विभिन्न शस्त्रों के द्वारा अग्निकायिक जीवों की हिंसा करता हुआ अनेक जीवों की भी हिंसा करता है। हिन्दी-विवेचन प्रस्तुत सूत्र पृथ्वीकाय और अप्काय के प्रकरण में सूत्र 16, 17 और 24 के सूत्र की तरह ही है। केवल इतना ही अन्तर है कि वहां पृथ्वी एवं अप्काय का वर्णन है और यहां तेजस्काय समझना चाहिए। शेष व्याख्या उसी प्रकार होने से यहां पिष्टपेषण करना उचित नहीं जंचता। अब सूत्रकार अग्निकाय समारम्भ से अन्य जीवों की जो हिंसा होती है, उसका उल्लेख करते हैं।
SR No.002206
Book TitleAcharang Sutram Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAtmaramji Maharaj, Shiv Muni
PublisherAatm Gyan Shraman Shiv Agam Prakashan Samiti
Publication Year2003
Total Pages1026
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_acharang
File Size19 MB
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