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________________ प्रथम अध्ययन, उद्देशक 4 _173 आत्मसुख एवं वीर्य की ज्योति अनावृत हो जाती है। साधक की दृष्टि में पूर्णता आ जाती है, उससे दुनिया की कोई भी वस्तु प्रच्छन्न नहीं रहती। और यह पूर्ण दृष्टि संयम-मार्ग पर प्रगति करके ही प्राप्त की गई है और अभी भी की जा रही है तथा भविष्य में भी प्राप्त की जा सकेगी। इस अपेक्षा से यह कहा गया है कि पूर्व सूत्र में कथित मार्ग सर्वज्ञ पुरुषों द्वारा अवलोकित एवं आचरित है। इसलिए साधक को निश्शंक भांव से उस पथ पर गतिशील होना चाहिए। - संयत, सदायत और अप्रमत्त ये तीनों 'वीर' शब्द के विशेषण हैं। संयत का अर्थ है-विषय-विकार एवं सावध कार्यों में प्रवृत्तमान योगों का सम्यक् प्रकार से निरोध करने वाला और सदा विवेक के साथ प्रवृत्ति करने वाले को सदायत कहते हैं। अप्रमत्त का अर्थ है-मद्य, विषय, कषाय, विकथा और निद्रा आदि प्रमाद का परित्याग करने वाला। उक्त गुणों से युक्त पुरुष वीर कहलाता है और ऐसे वीर पुरुष ने इस संयम-मार्ग को देखा एवं बताया है। योगानुसारी प्रस्तुत सूत्र का अर्थ है-अग्निकाय के आरम्भ-समारम्भ से मन-वचन और काय योग का निरोध करना और उससे जो लब्धि प्राप्त हो, उसका आत्मिक अभ्युदय के लिए उपयोग करना। - इससे स्पष्ट हो गया कि अग्निकाय का आरम्भ-समारम्भ अनर्थ का कारण है। फिर भी कई विषयासक्त एवं प्रमादी जीव विषय-वासना एवं प्रमाद के वश होकर अग्निकाय का आरम्भ-समारम्भ करते हैं। इसी बात को बताते हुए सूत्रकार कहते हैं- मूलम्-जे पमत्ते गुणट्ठिए से हु दंडे त्ति पवुच्चइ॥35॥ छाया-यः प्रमत्तः गुणार्थिकः सः खलु दण्ड इति प्रोच्यते। पदार्थ-जे-जो व्यक्ति। पमत्ते-प्रमादी। गुणट्ठीए-गुणार्थी है। से-वह। हु-निश्चय ही। दंडे त्ति-दण्ड रूप। पवुच्चइ-कहा जाता है। ___ मूलार्थ-जो जीव प्रमादी और गुणार्थी हैं, वे जीव प्राणियों के लिए दण्ड का कारण होने से उन्हें दण्ड रूप कहा जाता है।
SR No.002206
Book TitleAcharang Sutram Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAtmaramji Maharaj, Shiv Muni
PublisherAatm Gyan Shraman Shiv Agam Prakashan Samiti
Publication Year2003
Total Pages1026
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_acharang
File Size19 MB
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