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श्री आचाराङ्ग सूत्र, प्रथम श्रुतस्कंध अर्थात् सर्वज्ञ एवं सर्वदशी पुरुषों ने उसे देखा है। अतः अग्निकाय के आरंभ-समारंभ से निवृत्त होने रूप संयम-मार्ग सर्वज्ञ द्वारा प्ररूपित होने से वास्तविक पथ है; इसमें । संशय को जरा भी अवकाश नहीं है।
इस तरह सूत्रकार ने मुमुक्षु के मन में जरा भी संशय पैदा न हो, इस दृष्टि से . प्रस्तुत सूत्र के द्वारा मुमुक्षु के मन का पूरा समाधान करने का प्रयत्न किया है। हम सदा देखते हैं कि जब किसी बात पर किसी प्रामाणिक व्यक्ति की सम्मति मिल जाती है, तो व्यक्ति को उस बात पर पूरा विश्वास हो जाता है। अतः सूत्रकार ने इस बात को परिपुष्ट कर दिया है कि पूर्व सूत्र में कथित मार्ग वीतराग एवं सर्वज्ञ द्वारा प्ररूपित है। उन्होंने अग्निकाय को शस्त्र-रूप में और संयम को अशस्त्र-रूप में देखा है। अस्तु, प्रस्तुत सूत्र पूर्व सूत्र का परिपोषक है, साधक के मन में जगे हुए विश्वास को दृढ़ करने वाला है और आचार में तेजस्विता लाने वाला है।
प्रस्तुत सूत्र में प्रयुक्त 'वीर' शब्द तीर्थंकर एवं सामान्य केवलज्ञानी पुरुषों का परिबोधक है। क्योंकि वे राग-द्वेष एवं कषाय रूप प्रबल योद्धाओं को परास्त कर
चुके हैं, ज्ञान, दर्शन, सुख और वीर्य पर पड़े हुए आवरण सर्वथा अनावृत करके पूर्ण ज्ञान, दर्शन, सुख एवं वीर्य शक्ति को प्रकट कर चुके हैं, अतः वस्तुतः वे ही वीर कहलाने योग्य हैं और सर्वज्ञ होने के कारण वस्तु का वास्तविक स्वरूप बताने में भी वे ही समर्थ हैं। इसलिए सूत्रकार ने वीर शब्द का तीर्थंकर एवं सामान्य केवल ज्ञानी के लिए प्रयोग करके इस बात को स्पष्ट कर दिया है कि पूर्व सूत्र में कथित मार्ग सर्वज्ञ एवं सर्वदर्शी पुरुषों द्वारा अवलोकित है। केवल अक्लोकित ही नहीं, आचरित भी है। यों कहना चाहिए कि पूर्व सूत्र में कथित मार्ग पर गतिशील होकर ही उन्होंने सर्वज्ञता को प्राप्त किया है।
शुद्ध चारित्र-परिपालन करने के लिए परीषहों पर विजय पाना जरूरी है। जो साधक अनुकूल एवं प्रतिकूल परीषहों में आकुल-व्याकुल नहीं होता, संयम-मार्ग से विचलित नहीं होता, उसका चारित्र शुद्ध एवं निर्मल बना रहता है और उस विशुद्ध भावना से ज्ञानावरणीय; दर्शनावरणीय, मोहनीय और अन्तराय इन चारों घार्तिक कर्मों का सर्वथा नाश हो जाता है, या यों कहना चाहिए कि अनन्त ज्ञान, दर्शन,