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________________ 170 श्री आचाराङ्ग सूत्र, प्रथम श्रुतस्कंध में पूरे कर देता है । अवगाहना के संबन्ध में पूछे गए प्रश्न का उत्तर देते हुए भगवान महावीर ने कहा-हे गौतम! वनस्पतिकायिक जीवों की उत्कृष्ट अवगाहना एक हजार योजन से भी कुछ ऊपर है इसलिए वनस्पतिकाय. को आगम में 'दीर्घलोक' कहा है। इस 'दीर्घ-लोक-वनस्पतिकाय' का विनाशक शस्त्र अग्नि है। इसलिए जो व्यक्ति अग्नि का आरम्भ-समारम्भ करता है, वह 6 काय का विनाश करता है और जो इसके आरम्भ से निवृत्त है वह 17 प्रकार के संयम का आराधक है। इसी बात को प्रस्तुत सूत्र में इन शब्दों में अभिव्यक्त किया है कि जो व्यक्ति अग्निकाय का ज्ञाता है, अर्थात् उससे होने वाले आरम्भ एवं विनाश तथा उससे बंधने वाले कर्म के स्वरूप को भली-भांति जानता है, वह संयम का भी परिज्ञाता है और जो संयम का परिज्ञान रखता है, वह अग्निकाय के आरम्भ से भी निवृत्त होता है। प्रस्तुत सूत्र में प्रयुक्त “खेयण्णे” शब्द के संस्कृत में दो रूप बनते हैं-1. क्षेत्रज्ञः और 2. खेदज्ञः। उभय शब्दों का अर्थ करते हुए वृत्तिकार ने लिखा है "क्षेत्रज्ञो निपुणः अग्निकायं वर्णादितो जानातीत्यर्थः। खेदज्ञो वा खेदः तद् व्यापारः सर्वसत्वानां दहनात्मकः पाकाद्यनेक-शक्ति-कलापो-पचितः प्रवरमणिरिव जाज्वल्यमानो लब्धाग्नि-व्यपदेशो यतीनामनारम्भणीयः तमेवंविधं खेदं अग्निव्यापारं जानातीति खेदज्ञः।” 1. वणस्सइकाइएणं भंते! वणस्सइकाइएति कालओ केवच्चिरं होइ? गोयमा! अणंत कालं अणंताओ उस्सप्पिणि-अवसप्पणिओ कालओ। खेत्तओ अणंता लोया, असंखेज पोग्गल-परियट्टा तेणं पुग्गल परियट्टा आवलियाए असंखेज्जइभागे। -प्रज्ञापना सूत्र, पद 18 2. लवण समुद्र की गहराई एक हजार योजन की मानी गई है। और उसमें कमल पैदा होता है, उसकी जड़ समुद्र के धरातल में गड़ी होती है और कमल का ऊपरी भाग पानी से ऊपर रहता है। इस अपेक्षा से वनस्पतिकाय के शरीर की ऊंचाई एक हजार योजन से ऊपर मानी गई है। 3. वणस्सइकाइयाणं भंते! के महालिया सरीरोगाहणा पण्णता? गोयमा! साइरेगं जोयण-सहस्सं सरीरोगाहणा? -प्रज्ञापना सूत्र, 'अवगहणा पद
SR No.002206
Book TitleAcharang Sutram Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAtmaramji Maharaj, Shiv Muni
PublisherAatm Gyan Shraman Shiv Agam Prakashan Samiti
Publication Year2003
Total Pages1026
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_acharang
File Size19 MB
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