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प्रथम अध्ययन, उद्देशक 4
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शस्त्र रूप विशेषण से अभिव्यक्त किया गया है।
प्रस्तुत सूत्र में अग्नि शब्द का प्रयोग न करके 'दीर्घलोक-शस्त्र' इतने लम्बे वाक्य का जो प्रयोग किया है, उसके पीछे एक विशेषता रही हुई है। वह यह है कि अग्नि 6 काय का शस्त्र है। जब यह प्रज्वलित होती है, तो अपनी लपेट में आने वाले किसी भी प्राणी को सुरक्षित नहीं रहने देती। और जब यह जंगल में लगती है, तो बड़े-बड़े वृक्षों को जलाकर भस्म कर देती है। और वृक्ष के आश्रय में रहने वाले सभी स्थावर एवं त्रस जीवों को भस्म कर देती है। वृक्ष पर कृमि, पिपीलिका, भ्रमर आदि त्रस जीव पाए जाते हैं, उसकी कोटर एवं जड़ों में पृथ्वीकायिक और ओस के रूप में अप्कायिक तथा उसके पत्तों को हिलाते हुए वायुकायिक जीव भी वहां पाए जाते हैं। इस तरह एक वृक्ष को विध्वंस करने के साथ 6 काय के जीवों का नाश हो जाता है। इसी बात को बताने के लिए सूत्रकार ने 'अग्नि' शब्द का प्रयोग न करके 'दीर्घ-लोक-शस्त्र' शब्द का प्रयोग किया है। . वनस्पति को 'दीर्घलोक' कहने का तात्पर्य यह है-स्थावर-एकेन्द्रिय जीवों में वनस्पतिकायिक जीवों की अवगाहना ही सबसे बड़ी है। पृथ्वीकाय, अप्काय, तेजस्काय, वायुकाय के शरीर की अवगाहना अंगुल के असंख्यातवें भाग है, परन्तु वनस्पतिकायिक जीवों की अवगाहना विभिन्न प्रकार की है। कुछ वनस्पतिकायिक जीवों की अवगाहना एक हजार योजन से भी कुछ अधिक है। आगम में वनस्पतिकाय के संबंध में विस्तृत विवेचन मिलता है; कई जगह उसे 'दीर्घलोक' भी कहा है। एक बार गौतम स्वामी ने भगवान महावीर से पूछा कि हे भगवन्! वनस्पतिकाय में गया हुआ वनस्पतिकाय में ही रहे तो कितने काल तक रहता है? हे गौतम! यदि वनस्पति में गया हुआ जीव वनस्पतिकाय में ही जन्म-मरण करता रहे तो उत्कृष्ट अनन्त जन्म-मरण करता है और काल की अपेक्षा से अनन्त काल तक उसी में परिभ्रमण करता रहता है। इतना ही नहीं; असंख्यात पुद्गल-परावर्तन' उसी काय
1. 'पुद्गल-परावर्तन' काल का एक माप है। जैनागम की दृष्टि से एक कालचक्र में उत्सर्पिणी और अवसर्पिणी दो काल होते हैं, दोनों कालों के छह-छह आरे होते हैं
और एक काल 10 कोड़ा-कोड़ी सागरोपम का होता है, अतः पूरा कालचक्र 20 कोड़ा-कोड़ी सागरोपम का होता है और एक पुद्गल परावर्तन में अनन्त कालचक्र बीत . जाते हैं।