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प्रस्तावना
प्रत्येक साधक चाहे वह श्रमण-श्रमणी हो या श्रावक-श्राविका-का लक्ष्य मोक्ष है। उसका प्रत्येक पग अपने साध्य-पथ पर बढ़ता है। परन्तु पथ पर कदम रखने के पूर्व उस पथ का ज्ञान होना आवश्यक ही नहीं, अनिवार्य है। इसलिए जैनागमों में क्रिया के पहले ज्ञान का होना आवश्यक माना गया है। आगम में यहां तक उल्लेख मिलता है कि सम्यक् चारित्र के अभाव में ज्ञान सम्यक् रह सकता है, परन्तु सम्यक् ज्ञान के अभाव में चारित्र सम्यक् नहीं रह सकता। इसलिए क्रिया के पहले ज्ञान का महत्त्व स्वीकार किया गया है। साधक को यह उपदेश दिया गया है कि ज्ञानपूर्वक की गई क्रिया ही आत्मा को कर्मबन्धन से मुक्त करने में सहायक हो सकती है और सम्यक् ज्ञान पूर्वक क्रिया करने वाला साधक ही मोक्षमार्ग का आराधक हो सकता है। ___ ज्ञान के 5 भेद हैं-1. मतिज्ञान, 2. श्रुतज्ञान, 3. अवधिज्ञान, 4. मनःपर्यवज्ञान और 5. केवलज्ञान । इनमें प्रथम के दो ज्ञान इन्द्रिय और मन की सहायता से होते हैं और शेष तीन ज्ञान अपनी-अपनी शक्ति के अनुसार पदार्थों का ज्ञान करने में इन्द्रिय एवं मन के सहयोग की अपेक्षा नहीं रखते। तीसरा और चौथा ज्ञान सीमित क्षेत्र में स्थित सीमित पदार्थों को जानता-देखता है, परन्तु केवलज्ञान असीम होता है। वह समस्त पदार्थों के समस्त भावों को जानता-देखता है। उससे लोकालोक का कोई पदार्थ एवं भाव छिपा हुआ नहीं रहता। अतः वह पूर्णतः अनावृतं होता है।
श्रुतज्ञान का महत्व
इन पांचों ज्ञानों में श्रुतज्ञान उपकारी माना गया है, क्योंकि श्रुतज्ञान सर्वज्ञ पुरुषों की वाणी है। इसमें द्वादशांगी का समावेश हो जाता है। वस्तुतः तीर्थंकर तीर्थ की स्थापना करके द्वादशांगी का उपदेश देते हैं और इसी को श्रुतसाहित्य या श्रुतज्ञान कहते हैं। मतिज्ञान का अर्थ है-अपनी इन्द्रियों एवं बुद्धि के द्वारा पदार्थों का बोध करना और श्रुतज्ञान का अभिप्राय है कि सर्वज्ञोपदिष्ट श्रुतसाहित्य का अनुशीलनपरिशीलन करके पदार्थों का सही बोध करना। अपनी बुद्धि को यथार्थ रूप से सोचने-समझने की प्रेरणा श्रुतज्ञान से ही मिलती है। श्रुतज्ञान के आधार पर ही