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________________ प्रथम अध्ययन, उद्देशक 3 135 एवं अंगुल के. असंख्यातवें भाग की अवगाहना वाली है। इसलिए उसके स्वरूप को भली-भांति जानकर मुमुक्षु को सदा उसकी हिंसा से बचना चाहिए। अप्कायिक आरम्भ-समारम्भ के कार्यों से सदा सर्वदा दूर रहना चाहिए, जिससे उसका संयम भी शुद्ध रहेगा और उनसे आध्यात्मिक शान्ति भी प्राप्त होगी। ___अन्य दार्शनिक जल के आश्रित रहे हुए जीवों को तो मानते हैं, परन्तु जल को सजीव नहीं मानते। इस बात को स्पष्ट करते हुए सूत्रकार कहते हैं मूलम्-इहं च खलु भो। अणगाराणं उदय जीवा वियाहिया ॥25॥ छाया-इह च खलु भो! अणगाराणां उदक जीवाः व्याख्याताः। पदार्थ-खलु-अवधारण अर्थ में। इह-इस-तीर्थंकर भगवान द्वारा प्ररूपित आगम में। भो-अरे! अंणगाराणं-अनगारों को। उदय जीवा-अप्पकाय स्वयं सजीव है, यह। वियाहिया-संबोधन अर्थ में कहा गया है। च-चकार से अप्कायिक जीवों के अतिरिक्त उसके आश्रित रहे हुए द्वीन्द्रिय आदि अन्य जीवों का ग्रहण किया गया है। __मूलार्थ-हे जम्बू! जिनेन्द्र भगवान द्वारा दिए गए प्रवचन में ही अप्काय में ही अप्काय को जीवों का पिण्ड माना है और अप्काय-जल को सजीव मानने के साथ यह भी कहा है कि उसके आश्रित द्वीन्द्रिय आदि जीव भी रहते हैं। हिन्दी-विवेचन __ प्रस्तुत सूत्र में बताया गया है कि अप्काय-जल सजीव है, सचेतन है। और इस बात को केवल जैन दर्शन ही मानता है। अन्य दर्शनों ने जल में दृश्यमान एवं अदृश्यमान अन्य जीवों के अस्तित्व को तो स्वीकारा है। परन्तु जल स्वयं सजीव है, इस बात को जैनों के अतिरिक्त किसी भी विचारक या दार्शनिक ने नहीं माना। वस्तुतः पृथ्वी, जल आदि स्थावर जीवों की सजीवता को प्रमाणित करके जैन दर्शन ने अध्यात्म-विचारणा में एक नया अध्याय जोड़ दिया और इससे यह स्पष्ट हो जाता है कि जैनागम सर्वज्ञ-प्रणीत हैं। 1. प्रस्तुत सूत्र का वर्णन पृथ्वीकाय के प्रकरण में सूत्र 17 की व्याख्या के समान समझें।
SR No.002206
Book TitleAcharang Sutram Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAtmaramji Maharaj, Shiv Muni
PublisherAatm Gyan Shraman Shiv Agam Prakashan Samiti
Publication Year2003
Total Pages1026
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_acharang
File Size19 MB
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