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श्री आचाराङ्ग सूत्र, प्रथम श्रुतस्कंध
पाने के लिए तथा जन्म-मरण के दुःख से उन्मुक्त होने के लिए अप्कायिक जीवों का स्वयं आरम्भ-समारम्भ करते हैं और दूसरे व्यक्तियों से कराते हैं तथा आरम्भ करने वाले प्राणियों की प्रशंसा करते हैं। परन्तु यह अप्कायिक जीवों का आरंभ-समारंभ उनके लिए अहितकर एवं अबोध का कारण बनता है।
कुछ व्यक्ति अप्काय आदि के वास्तविक स्वरूप को जानकर सम्यग् ज्ञान एवं दर्शन को प्राप्त कर लेते हैं। और भगवान या अणगार-मुनियों के पास से अप्कायिक समारम्भ के संबन्ध में सुनकर वे इस बात को भली-भांति जान-समझ लेते हैं कि यह अप्काय का आरम्भ-समारम्भ अष्टविध कर्मों की ग्रन्थि-गांठ है, मोह रूप है, मृत्यु का कारण है और नरक का हेतु है। इस में आसक्त बने हुए प्राणी ही अप्कायिक शस्त्र का समारम्भ करते हुए, उसका एवं उसके आश्रित स्थित अन्य स्थावर एवं त्रस जीवों की हिंसा करते हैं। यह मैं तुम्हें बताता हूं। हिन्दी-विवेचन
प्रस्तुत सूत्र में सूत्रकार ने ज्ञानाचार, दर्शनाचार, चारित्राचार और वीर्याचार, इस तरह चारों आचारों का वर्णन कर दिया है। अप्कायिक जीवों की सजीवता का सम्यक्बोध प्राप्त करना ज्ञानाचार है; उनकी सजीवता पर दृढ़ विश्वास एवं श्रद्धा रखना दर्शनाचार है, उनकी हिंसा का परित्याग करना चारित्राचार है और उनकी रक्षा के लिए प्रयत्न करना वीर्याचार है। इस तरह एक सूत्र में चारों आचारों का समन्वय कर दिया है। ये चारों आचार ही संयम के आधार हैं। इनसे संयुक्त जीवन ही मुनि-जीवन है। __कुछ लोग अप्कायिक जीवों के आरम्भ-समारम्भ में प्रवृत्त होकर भी अपने आप को अणगार कहते हैं। वे भले ही अपने आपको कुछ भी क्यों न कहें, परन्तु वास्तव में वे अणगार नहीं हैं। क्योंकि अभी तक उन्हें न तो अप्काय में जीवत्व का बोध है और न वे उसके आरम्भ-समारम्भ के त्यागी हैं। अतः वे सभी अणगारत्व से बहुत दूर हैं। ___से बेमि' में प्रयुक्त हुआ 'से' शब्द आत्मा (अपने आप) का बोधक है। इसलिए. ‘से बेमि' का तात्पर्य हुआ कि 'मैं कहता हूँ।'
अप्काय भी पृथ्वीकाय की तरह, प्रत्येक शरीरी, असंख्यात जीवों का पिण्डरूप