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प्रथम अध्ययन, उद्देशक 2
करे । भमुहममे 2 - भृकुटियों का छेदन-भेदन करे । ललाडमब्भे 2 - ललाट का छेदन-भेदन करे। सीसमब्भे 2 - मस्तिष्क का छेदन - भेदन करे ।
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जैसे इस व्यक्त चेतना वाले व्यक्ति को इन कारणों से स्पष्ट वेदना की अनुभूति होती है, उसी तरह पृथ्वीकाय के जीवों को भी वेदना होती है, परन्तु वे उसे अभिव्यक्त नहीं कर सकते ।
पृथ्वीकाय के जीवों को जो वेदना होती है, उसे और स्पष्ट करने के लिए सूत्रकार अब तीसरा उदाहरण देते हैं- अप्पेगे - कोई पुरुष किसी व्यक्ति को इतना मारे कि । संपमारए–मूर्च्छित कर दे । अप्पे - कोई व्यक्ति किसी को मार-मार कर । उद्दवए-उसे- प्राणों से पृथक् कर दे ।
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जैसे इन प्राणियों को मूर्च्छित होने एवं मरने के पूर्व जो अव्यक्त वेदना होती है, वैसी ही अव्यक्त वेदना पृथ्वीकाय के जीवों को होती है । परन्तु अज्ञानी जीव इस रहस्य को नहीं जानते, इसलिए वे रात-दिन हिंसा में प्रवृत्ति करते हैं । इसी बात को सूत्रकार अपनी भाषा में कहते हैं - इत्थं - इस पृथ्वीकाय में । सत्थं सभारम्भ - माणस्सशस्त्र का प्रयोग करने वाले व्यक्ति को । इच्चेते - इस प्रकार के । आरम्भा - आरंभ खनन - कृषि आदि सावद्य व्यापार में । अपरिण्णाता - अपरिज्ञात । भवंति - होते हैं ।
मूलार्थ - पृथ्वीकाय के आरंभ-समारंभ में लगे हुए व्यक्ति को यह सावद्य प्रवृत्ति अनागत काल में अहितकर तथा बोध की अवरोधक होती है । परंतु जो भव्य जीव - पृथ्वीकाय का आरंभ करना पाप है, ऐसा भगवान या अणगारों से सुन कर, सम्यग्ज्ञान, दर्शन आदि के द्वारा भली-भांति जान लेता है, उसको यह ज्ञान हो जाता है कि पृथ्वी काय का आरंभ भविष्य में अहित और अबोधि के लाभ का कारण है । अतः ऐसे किन्हीं ज्ञानी पुरुषों को यह परिज्ञात हो जाता है कि यह पृथ्वीकाय का समारंभ ग्रंथि है, अर्थात् अष्ट कर्मों की गांठ है, मोह रूप है, मृत्यु का कारण है और नरक का कारण है और उन्हें इस बात का भी परिबोध होता है कि कुछ लोग जो सांसारिक विषय-भोगों में अधिक आसक्त रहते हैं, वे आहार, भूषण और अन्य उपकरणों के लिए तथा प्रशंसा, मान-सम्मान, पूजा-प्रतिष्ठा के लिए अनेक प्रकार के शस्त्रों से पृथ्वीकायिक जीवों का विनाश करते हैं और उसके आश्रय में रहे हुए अनेक प्रकार के त्रस प्राणियों की भी हिंसा करते हैं ।