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________________ 104 श्री आचाराङ्ग सूत्र, प्रथम श्रुतस्कंध है और पृथ्वीकाय के जीवों की हिंसा से पूरी तरह बचकर रहने का प्रयत्न करता है। ___भोग-प्रधान जीवन में निवृत्ति को विशेष स्थान नहीं है। क्योंकि वहां जीवन का मूल्य भोग-विलास मान लिया गया है। और मूल्य-निर्धारण के अनुरूप ही जीवन को ढाला गया है या ढाला जा रहा है। यों कहना चाहिए कि जीवन में भोग-विलास एवं ऐश्वर्य को प्रधानता देने वाले व्यक्ति रात-दिन विषय-वासना एवं ऐशोराम में निमग्न रहते हैं। उनका प्रत्येक क्षण भौतिक साधनों को संगृहीत करने तथा अपने स्वार्थों को साधने के लिए नई-नई स्कीमें-योजनाएं बनाने में बीतता है और येन-केन-प्रकारेण वे भोग-सामग्री को, भौतिक सुख-साधनों को बटोरने में संलग्न रहते हैं। उसके लिए छल-कपट, शोषण, हिंसा आदि सभी दुष्कर्म करने में वे जरा भी संकोच नहीं करते। इस तरह रात-दिन सावध कार्यों में प्रवृत्त रहते हैं। इस कारण पृथ्वीकाय ही क्या, अन्य एकेन्द्रिय, द्वीन्द्रिय ही नहीं, पञ्चेन्द्रिय तक के प्राणी उनके स्वार्थ की आग में स्वाहा हो जाते हैं। इस तरह के दुष्कर्मों में प्रवृत्त हो कर स्वयं तथा प्राणिजगत के लिए भयावह बन जाते हैं। ___ कुछ व्यक्ति ऐसे हैं, जो अपने आपको अनगार, मुनि कहते हैं और सर्व प्राणिजगत की रक्षा करना अपना मुख्य कर्तव्य बताते हैं। परन्तु उनका जीवन उनके कथन की विपरीत दिशा में गतिमान होता है। वे भी गृहस्थों की तरह खनन आदि कार्यों में सक्रिय रूप से भाग ले कर पृथ्वीकाय तथा उसके आश्रित अन्य अनेक जीवों की हिंसा करते हैं। अतः उन्हें भी प्रवृत्ति में प्रवहमान बताया गया है। निष्कर्ष यह निकला कि त्यागप्रधान-निवृत्तिमय जीवन मोक्ष का प्रतीक है, उस से किसी भी प्राणी का अहित नहीं होता है और भोग-प्रधान या प्रवृत्तिमय जीवन संसार-परिभ्रमण का कारण है। क्योंकि सावद्य प्रवृत्ति से दूसरे प्राणियों की हिंसा होती है, उस से पाप कर्म का बन्ध होता है और परिणामस्वरूप वह आत्मा संसार-प्रवाह में प्रवहमान रहती है। निवृत्ति और प्रवृत्ति प्रधान जीवन में रहे हुए अन्तर को स्पष्ट करने के लिए सूत्रकार ने ‘पश्य' शब्द का प्रयोग किया है। इसलिए मुमुक्षु को दोनों तरह के जीवन के स्वरूप को भली-भांति देख-समझ कर पृथ्वीकाय आदि जीवों की हिंसा से बचना चाहिए, विरत होना चाहिए। 'लज्जमाणा-लज्जमानाः' शब्द का अर्थ है-लज्जा का अनुभव करना या लज्जित
SR No.002206
Book TitleAcharang Sutram Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAtmaramji Maharaj, Shiv Muni
PublisherAatm Gyan Shraman Shiv Agam Prakashan Samiti
Publication Year2003
Total Pages1026
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_acharang
File Size19 MB
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