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श्री आचाराङ्ग सूत्र, प्रथम श्रुतस्कंध 3. मान-परिवंदन की तरह मान में स्वामी-सेवक की भावना, किसी पर अधिकार जमाने की भावना और किसी को अपनी आज्ञा में रखने की भावना कम है। मान में मूल भावना यह है कि कोई मेरी प्रशंसा करे। कोई मेरे सम्बन्ध में कुछ अच्छे बोल बोले। इस मान के कारण और इस मान को प्राप्त करने के लिए व्यक्ति अनेक दुष्कर्म करता है। दूसरा दृष्टिकोण यह भी है कि कोई मेरी पूजा कर रहा है तो उसका पूजनीय भाव बनाए रखने के लिए मुझे किसी भी प्रकार की अनाचरणीय हिंसा, असत्य इत्यादि करने पड़ें तो कर दूं। इस प्रकार मान के लिए कई मुनिराज मंत्र-तंत्र इत्यादि का अनुष्ठान करते हैं। यदि शासन प्रभावना के लिए करते हैं, तब ठीक है। लेकिन कोई मेरी पूजा करे, मेरी मान-प्रतिष्ठा बढ़े, इस भावना से करे, तब मोहनीय कर्म का बन्ध होता है।
सामाजिक प्रवृत्ति के दरम्यान मुनि का लक्ष्य केवल आत्मार्थ और शासन प्रभावना .. का ही होना चाहिए। व्यक्तिगत रूप से भी यदि किसी की मदद करनी पड़े, तब यह
देखना चाहिए कि क्या यह शासनप्रभावना में मदद करेगा, क्या इस व्यक्ति के निमित्त से आगे शासनप्रभावना होने वाली है। परिवंदन : अधिकाधिक गहरा भाव ' है। मान : उसी का स्थूल रूप है। जैसे___ एक मित्र दूसरे मित्र की प्रशंसा करता है, तब यह मान के अन्तर्गत आता है। मान में भी कोई प्रशंसा तभी करेगा, जब कोई तुमसे प्रभावित होगा। तो किसी को प्रभावित करने की इच्छा भी स्थूल रूप से किसी पर अधिकार जमाने की भावना ही है। यह मुनि को देखना चाहिए कि क्या उसकी क्रिया प्रशंसा-पूजा या प्रतिष्ठा प्राप्त करने की है तो वह कर्म बन्धनकारक है।
1. पुण्यानुबंधी पुण्य-यों तो प्रत्येक क्रिया कर्म-बन्धन को लाती है। लेकिन जो क्रिया शासनप्रभावना की शुद्ध भावना से आगमानुसार की जाती है, उससे पुण्यानुबंधी पुण्य का बन्ध होता है। ___ जो क्रिया केवल करुणा के वश या किसी शुभ भावना के वश की जाती है; फिर भी यदि वह आगम अनुसार नहीं है, तो वह पुण्यबन्धन का कारण बनती है। पुण्यानुबंधी पुण्य से संवर और निर्जरा के लिए साधना की प्राप्ति होती है। साधना करने हेतु निमित्त साधन मिलते हैं। केवल पुण्य बंधन साता प्रदान करता है। .