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________________ अध्यात्मसार: 1 करने का कारण कर्म है। यहाँ पर साधारणतः कर्म का अर्थ आत्मा पर लगी कर्म रज.या कर्म संसार की अपेक्षा से ही किया जाता है। लेकिन वस्तुतः संसार-परिभ्रमण के कारण की अपेक्षा से यदि हम देखें तो योगों जो की चंचलता है, वही कर्म है। अक्सर व्यक्ति कहते हैं, संसार में क्यों पड़े हैं। उसका उत्तर है, क्योंकि कर्मों का उदय है। यह केवल कर्माश्रित जीवन हुआ। धर्माश्रित जीवन तब बनता है, जब व्यक्ति यह समझता है कि योगों की चंचलता एवं कषाय के कारण ही संसार है, परिभ्रमण है तथा योग-स्थिरता एवं चित्त की उपशान्तता से ही मुक्ति मिलती है। अधिकांश व्यक्ति तत्त्वज्ञान पाकर भी कर्माश्रित जीवन ही जीते हैं, क्योंकि उन्हें कर्म का प्रथम अर्थ आत्मा पर कर्मरज है, यही समझ में आता है। दूसरा अर्थ वस्तुतः योगों की चंचलता एवं कषाय की तीव्रता जब तक रहेगी, तब तक आत्मा इस संसार में भटकेगी, यह उनके समझ में परिलक्षित नहीं होता। जब वह समझ जागृत होती है, तब जीवन में योग की स्थिरता एवं चित्त की उपशान्ति का आगमन होता है, तब जीव कर्माश्रित से धर्माश्रित होता है। - अकर्मण्येव मोक्ष-अकर्म ही मोक्ष है, अकर्म यानी आत्मा का शुद्ध स्वभाव में रमण। यह बहुत कम लोग समझ पाते हैं। शुद्ध स्वभाव में रमण तभी हो सकता है, जब पहले आत्म-बोध हो जाए। केवल शरीर और चित्त को शान्त कर लेना मात्र अकर्मण्येव मोक्ष नहीं है, वह ध्यान के लिए तैयारी मात्र है। जिनवाणी की पठन-विधि जिनवाणी का अर्थ तभी प्रकट होता है, जब किसी चारित्रवान व्यक्ति के समक्ष यह वाणी आती है और वह उपयोगपूर्वक उसका पठन-श्रवण या चिन्तन करता है। बिना चारित्र के जिनवाणी का पठन नहीं किया जा सकता। जिनवाणी की प्रभावना के लिए कम-से-कम व्यक्ति को श्रमणोपासक बनना आवश्यक है और ऐसा श्रमणोपासक जो अपना बाह्याचार एवं आन्तरिक साधना में स्थिर हो। इसमें प्रत्येक व्यक्ति को आज्ञा नहीं दी जा सकती, पहले उसके कर्मों का क्षयोपशम भी देखना आवश्यक है।
SR No.002206
Book TitleAcharang Sutram Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAtmaramji Maharaj, Shiv Muni
PublisherAatm Gyan Shraman Shiv Agam Prakashan Samiti
Publication Year2003
Total Pages1026
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_acharang
File Size19 MB
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