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________________ श्री आचाराङ्ग सूत्र, प्रथम श्रुतस्कंध मूलार्थ-जो व्यक्ति कर्मबन्ध की कारणभूत क्रियाओं के यथार्थ स्वरूप को भलीभांति नहीं जानता है और उनका परित्याग नहीं करता है, वह इन दिशा-विदिशाओं में परिभ्रमण करता है और सभी दिशा-विदिशाओं में कर्मों के साथ जाता है। विभिन्न योनियों के साथ सम्बन्धित होता है और अनेक तरह के स्पर्शजन्य दुःखों का संवेदन एवं उपभोग करता है। . अपरिज्ञात-कर्मा का अर्थ है निश्चय नय से जिसको आत्मबोध नहीं है, जो ज्ञायक भाव से रहित है, क्योंकि जो आयावादी नहीं वह लोयावादी भी नहीं, जो लोयावादी नहीं, वह कम्मावादी और क्रियावादी भी नहीं। यह सूत्र आत्मबोध की महत्ता को बताता है कि उसके बिना जीव भटकता है। इस प्रकार हमने अनेक जन्मों में बाह्याचार किया, उससे पुण्य-बन्ध हुआ, लेकिन निर्जरा नहीं हुई। ___ परिज्ञात कर्मा मुनि वही है जो कर्मबन्धन के कारण को जानता है तथा कर्म मुक्ति का उपाय क्या है, यह भी जानता है। साथ ही तदनुसार यथा-शक्ति सम्यक् आचरण भी करता है। परिज्ञात कर्मा के अन्तर्गत कर्म-बन्धन के कारण एवं मुक्ति के उपायों को जानना मात्र ही नहीं है, अपितु तदनुसार सम्यक् आचरण भी समाविष्ट है। __प्रत्याख्यान परिज्ञा-केवल त्याग प्रधान नहीं है, अपितु जो उपादेय है, उसका आचरण भी साथ है। साधारणतः हम प्रत्याख्यान का अर्थ छोड़ना लेते हैं, परन्तु वस्तुतः उसका अर्थ जो हेय है उसको छोड़ना मात्र ही नहीं, अपितु जो उपादेय है, उसे ग्रहण करना भी है। अतः मुनिजन या श्रावक जन महाव्रत या अणुव्रत ग्रहण करते हैं, तब केवल यही नहीं समझना चाहिए कि तुम्हें क्या छोड़ना चाहिए, साथ में यह भी बताना चाहिए कि क्या उपादेय है। जैसे श्री उत्तराध्ययन-सूत्र में मुनिजनों के लिए दस प्रकार की समाचारी का वर्णन है। मूलम्-तत्थ खलु भगवता परिण्णा पवेइया॥10॥ मूलार्थ-कर्म-बन्धन की कारणभूत क्रियाओं के संबंध में भगवान महावीर ने परिज्ञा-विवेक का उपदेश दिया है। संसार का कारण-जब तक कर्म है, तब तब संसार है। संसार में परिभ्रमण
SR No.002206
Book TitleAcharang Sutram Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAtmaramji Maharaj, Shiv Muni
PublisherAatm Gyan Shraman Shiv Agam Prakashan Samiti
Publication Year2003
Total Pages1026
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_acharang
File Size19 MB
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