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________________ . . " more श्री आचाराङ्ग सूत्र, प्रथम श्रुतस्कंध के लोभ में आकर वह अनेक दुष्कर्मों में प्रवृत्त होकर पापकर्मों का संग्रह करता है। इस तरह मनुष्य का जीवन सांसारिक कामनाओं से आवेष्टित है और वह उनकी पूर्ति के निमित्त रात-दिन विभिन्न कर्मों में संलग्न रहता है। इस संबंध में संस्कृत के एक विद्वान आचार्य ने बहुत ही सुंदर शब्दों में कहा है “आदौ प्रतिष्ठाधिगमे प्रयासो, दारेषु पश्चाद् गृहिणः सुतेषु। . कर्तुं पुनस्तेषु गुण प्रकर्ष, चेष्टा तदुच्चैः पदलंघनाय।” अर्थात्-गृहस्थों का सर्वप्रथम प्रयास येन-केन-प्रकारेण संसार में मान-प्रतिष्ठा प्राप्त करने का रहता है। दूसरे, स्त्री को पाने एवं तीसरे में पुण्य-प्राप्ति के लिए प्रयत्न करते हैं। तदनन्तर वे अपने पुत्रों को सुखी बनाने के लिए प्रयत्नशील रहते हैं। इस तरह घड़ी की सुई की तरह उनका प्रयास-प्रवाह निरन्तर प्रवहमान रहता है। उनकी अतृप्त कामनाओं का प्रवाह जीवन के अन्तिम क्षण तक चलता रहता है। ___ इससे स्पष्ट हो जाता है कि प्राणी अपनी अन्तर कामनाओं या अभिलाषाओं के वशीभूत होकर पाप-कार्यों में प्रवृत्त होता है। जब उसे क्रिया के हेय-उपादेयता के स्वरूप का सम्यक्तया बोध हो जाता है और वह परिज्ञा-विवेक युक्त होकर साधना में प्रवृत्त होता है तो फिर वह संसार में अनन्त काल तक परिभ्रमण कराने वाले पापकर्मों से सहज ही बच जाता है। क्योंकि जब तक क्रिया में विवेक जागृत नहीं होता, तभी तक पाप-कर्म का बन्ध होता है। विवेक जागृत होने के बाद साधक द्वारा की जाने वाली क्रिया से पाप कर्म का बन्ध नहीं होता। और जब साधक ज्ञान के द्वारा क्रिया के वास्तविक स्वरूप को समझकर त्यागपथ पर गतिशील होता है, फिर शनैः-शनैः क्रियाओं का परित्याग करता हुआ एक दिन संसार में रोक रखने वाली क्रिया-मात्र से मुक्त हो जाता है। साधना की चरम सीमा को लांघकर साध्य को सिद्ध कर लेता है। इस लक्ष्य तक पहुंचने के लिए साधक के लिए यह आवश्यक है कि वह पहले क्रिया-संबन्धी उचित जानकारी प्राप्त करे और फिर उनमें विवेकपूर्वक गति करे। इससे साधक संसार-सागर को पार करके एक दिन कर्मबन्धन की कारणभूत क्रियाओं से भली प्रकार छुटकारा पा लेगा। 1. “जयं चरे, जयं चिट्टे, जयमासे, जयं सए, जयं भुंजतो-भासंतो, पाव कम्मं न बंधइ।" -दशवैकालिकं सूत्र, 4/9.
SR No.002206
Book TitleAcharang Sutram Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAtmaramji Maharaj, Shiv Muni
PublisherAatm Gyan Shraman Shiv Agam Prakashan Samiti
Publication Year2003
Total Pages1026
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_acharang
File Size19 MB
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