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________________ प्रथम अध्ययन, उद्देशक 1 का उपकारी होना यह जीव का लक्षण है ।" इस दृष्टि से जीवन-यात्रा को चलाने के लिए यदि एक-दूसरे का सहयोग लिया जाता है, तो वह व्यवहार दृष्टि से बुरा नहीं है। यह सत्य है कि इस क्रिया में भी हिंसा होती है, परन्तु क्रिया के कर्त्ता की भावना शुद्ध एवं सात्त्विक होने के कारण तथा इससे सर्वथा निवृत्त होने की असमर्थता के कारण उसे विवश होकर करनी पड़ती है, इस अपेक्षा से वह अशुभ कर्मबन्ध से बच जाता है या स्वल्प मात्रा में ही बन्ध हो पाता है 1 73 परन्तु कुछ व्यक्ति यह मानकर चलते हैं कि " जीव ही जीव का भोजन है 2 ।” जीव को मारे बिना जीवन चल ही नहीं सकता । अतः जीवन निर्वाह के लिए दूसरे प्राणियों को त्रास देते हुए वे ज़रा भी नहीं हिचकिचाते । अपने शरीर को परिपुष्ट बनाने एवं स्वास्थ्य बनाने के लिए अनेक पशु एवं पक्षियों के मांस का, खून का, चर्बी का तथा मद्य एवं आसवों ( द्राक्षासवादि) का सेवन करते हैं । इस तरह वे विषय-भोगों को भोगने के लिए अनेक प्रकार के पाप-कार्यों को करते हुए शर्म एवं लज्जा का अनुभव नहीं करते और यह भी नहीं सोचते - विचारते कि जिस जीवन के लिए, शरीर को स्वस्थ रखने एवं बलिष्ठ और शक्तिशाली बनाने के लिए हम दुष्कर्म कर रहे हैं, वह जीवन या शरीर एक दिन नष्ट होने वाला है, यह जीवन सदा रहने वाला नहीं है । इस तरह क्षणिक आनन्द के लिए वे संसारी प्राणी विविध पाप-कार्यों में संलग्न होकर अशुभ कर्मों के बोझ से भारी बनते हैं, पाप कर्मों का संग्रह करके संसार में परिभ्रमण करते हैं । 2. परिवन्दन - परिवन्दन प्रशंसा का नाम है। दुनिया में प्रशंसा पाने के लिए मनुष्य अनेक प्रकार के दुष्कर्म का आसेवन करता है । हम देखते हैं कि कई पहलवान दुनिया में प्रशंसा पाने के हेतु मांस-मछली एवं अंडे आदि अभक्ष्य पदार्थ खाकर अपनी शारीरिक शक्ति बढ़ाते हैं और फिर उसका प्रदर्शन करके लोगों से प्रशंसा पाते हैं। आज भी कुछ लोग प्रतिवर्ष यूरोप में इंगलिश चैनल नदी को पार करते हैं। वह एक भयंकर नदी है, नदी क्या छोटा सा समुद्र ही है । उसे पार करने की पीछे एक ही कामना रही हुई है और वह यह कि संसार में प्रशंसा पाना समाचार-पत्रों के मुख-पृष्ठ 1. परस्परोपग्रहो जीवानाम् । 2. जीवो जीवस्य भोजनम् । - तत्त्वार्थ सू - मनुस्मृति ।
SR No.002206
Book TitleAcharang Sutram Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAtmaramji Maharaj, Shiv Muni
PublisherAatm Gyan Shraman Shiv Agam Prakashan Samiti
Publication Year2003
Total Pages1026
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_acharang
File Size19 MB
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