________________
श्री आचाराङ्ग सूत्र, प्रथम श्रुतस्कंध
पृथ्वीकाय, अप्काय, तेजस्काय और वायुकाय इन में से प्रत्येक काय की सात-सात लाख योनियां होती हैं। प्रत्येक वनस्पति काय की दस लाख योनियां हैं; साधारण वनस्पति (अनन्त काय) की चौदह लाख, विकलेन्द्रिय (द्वीन्द्रिय, त्रीन्द्रिय, चतुरिन्द्रिय) में से प्रत्येक की दो-दो लाख; नारक, देव और पञ्चेन्द्रिय तिर्यञ्च की चार-चार लाख
और मनुष्य की 14 लाख योनियां होती हैं। इस प्रकार संसार के समस्त जीवों की. 7 +7+7+ 7 + 10 + 14 + 2 + 2 + 2 + 4 + 4 + 4 + 14 = 84 लाख योनियां बनती हैं । इन सब योनियों में संसारी जीव जन्म-मरण करते हैं और जन्म-मरण के प्रवाह में प्रवहमान रहने के कारण ही जीवों को मानसिक, वाचिक और कायिक संक्लेश एवं दुःखों का संवेदन एवं सामना करना पड़ता है।
'विरूवरूवे फासे पडिसंवेदेइ' प्रस्तुत वाक्य में व्यवहृत 'विरूपरूप' 'स्पर्श शब्द का विशेषण है। 'विरूपरूप' शब्द 'विरूप. रूप' इन दो शब्दों के संयोग से बना है। विरूप बीभत्स और अमनोज्ञ को कहते हैं और रूप शब्द से स्वरूप का बोध होता है। अतः 'विरूपरूप' शब्द का अर्थ हुआ-बीभत्स और अमनोज्ञ स्वरूप वाला। 'स्पर्श' शब्द स्पर्शनेन्द्रिय आश्रित दुःखों का परिबोधक है, स्पर्श को उपलक्ष्य मान लेने पर वह शारीरिक एवं मानसिक दोनों दुःखों का परिचायक बन जाता है।
यहां यह प्रश्न पूछा जा सकता है कि सूत्रकार ने 'फासे' शब्द का उल्लेख करके केवल स्पर्शनेन्द्रिय आश्रित दुःखों की ओर संकेत किया है, किन्तु हम यह देखते हैं कि घ्राण, रसना आदि अन्य इन्द्रियों के आश्रित दुःख का संवेदन होता है, पर सूत्रकार ने उन का उल्लेख नहीं किया, इसका क्या कारण है? ___उक्त प्रश्न का उत्तर यह है कि स्पर्श-इन्द्रिय आश्रित दुःख का उल्लेख करके सूत्रकार ने अन्य इन्द्रियों द्वारा संवेदित दुःखों को स्पर्श-इन्द्रिय द्वारा संवेदित दुःखों में ही समाविष्ट कर दिया है। अन्य इन्द्रियों के नाम का उल्लेख न करके स्पर्शनेन्द्रिय का उल्लेख करने का यह कारण रहा है कि स्पर्श-इन्द्रिय संसार के सभी प्राणियों को 1. पुढवी-जल-जलण-मारुय-एक्कक्के सत्त-सत्त लक्खाओ।
वणपत्ते य अणंते दस चोद्दस जोणि लक्खाओ। विगलिन्दिएसु दो-दो चउरो-चउरो य णारयसुरेसुं। तिरिएसु हुंति चउरो चोद्दस लक्खा य मणुएसु॥