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प्रथम अध्ययन, उद्देशक 1
और मति शब्द ज्ञान का बोधक है। साधारणतः ज्ञान प्रत्येक प्राणी में पाया जाता है, क्योंकि वह आत्मा का लक्षण है, गुण है। उसके अभाव में आत्मा का अस्तित्व भी नहीं रह सकता। अतः सामान्यतः ज्ञान का अस्तित्व समस्त आत्माओं में है, परंतु यह बात अलग है कि कुछ आत्माओं में सम्यक् ज्ञान है और कुछ में मिथ्या। मति-श्रुति ज्ञान भी ज्ञान के अवान्तर भेद हैं। ये यदि सम्यग् हों तो इनसे भी आत्मा के वास्तविक तत्त्वों का परिबोध होता है, संसार एवं मोक्ष के मार्ग का परिज्ञान होता है। मति-श्रुत ये सामान्य और विशेष दो प्रकार के होते हैं। परंतु समान्य मति-श्रुत से, मैं पूर्व भव में कौन था, इत्यादि बातों का बोध नहीं होता। इसलिए सामान्य मति-श्रुत ज्ञान को 'सन्मति' नहीं कहते, प्रत्युत जातिस्मरण, (पूर्व जन्मों को देखने वाला ज्ञान, मति-श्रुत ज्ञान का विशिष्ट प्रकार), अवधिज्ञान, मनःपर्यवज्ञान और केवलज्ञान आदि विशिष्ट ज्ञानों का संग्राहक है और यह विशिष्ट ज्ञान सभी जीवों को नहीं होते हैं। ___'सन्मति' ज्ञान-प्राप्ति का अंतरंग कारण है। ज्ञानावरणीय कर्म के क्षयोपशम या क्षय से आत्मा को विशिष्ट ज्ञान की प्राप्ति होती है या यों कहिए कि ज्ञानावरणीय कर्म का आवरण जितना हटता जाता है, उतना ही आत्मा में अस्तित्व रूप में स्थित ज्ञान का प्रकाश होता रहता है। जब पूर्णतः आवरण हट जाता है, तो आत्मा में स्थित अनन्त ज्ञान प्रकट हो जाता है। इन विशिष्ट ज्ञानों के द्वारा आत्मा अपने स्वरूप को एवं पूर्व भव में वह किस योनि या गति में था? जान लेता है। उक्त ज्ञान के द्वारा वह यह भलीभांति जान लेता है कि मैं किस दिशा-विदिशा से आया हूँ और मेरा यह आत्मा औपपातिक (उत्पत्तिशील) है तथा जो दिशा-विदिशाओं में परिभ्रमण करता रहा है, वह मैं ही हूँ।
.. 'संमइयाए' पद के संस्कृत में दो रूप बनते हैं-1. सन्मत्या और 2. स्वमत्या 'सन्मति' के विषय में ऊपर विचार कर चुके हैं। अब जरा 'स्वमति' के अर्थ पर सोच-विचार लें।
'स्वमति' शब्द भी स्व+मति के संयोग से बना है। स्व का अर्थ आत्मा होता है और मति शब्द ज्ञान का परिचायक है। अतः ‘स्वमति' का अर्थ हुआ आत्मज्ञान। साधारणतया सम्यग् ज्ञान को आत्मज्ञान कहते हैं। जो ज्ञान आत्मा के ऊपर लगी कर्मरज को दूर करने में सहायक है या यों कहिए कि जो ज्ञान मोक्षमार्ग का पथ-प्रदर्शक है, तत्त्व का सही निर्णय करने में सहायक है, वह आत्मज्ञान है। इस तरह मतिज्ञान