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________________ 40 श्री आचाराङ्ग सूत्र, प्रथम श्रुतस्कंध हिन्दी-विवेचन ज्ञानावरणीय आदि कर्मों से आवृत्त यह आत्मा अनंत काल से अज्ञान अंधकार में भटक रही है, संसार में इधर-उधर ठोकरें खा रही है और जन्म-मरण के प्रवाह में प्रवहमान है। किन्तु जब आत्मा शुभ विचारों में परिणति करता है, सत्कार्य में प्रवृत्त होता है, अपने चिंतन को नया मोड़ देता है और साधना के द्वारा ज्ञानावरणीय कर्म के पर्दे को अनावृत्त करने का प्रयत्न करता है और फलस्वरूप ज्ञानावरणीय कर्म का क्षयोपशम होता है, तब आत्मा में अपने स्वरूप को जानने-समझने की जिज्ञासा उत्पन्न होती है और साधना के द्वारा एक दिन वह अपने स्वरूप का प्रत्यक्षीकरण करने में सफल भी हो जाता है और वह इन सभी बातों को जान लेता है कि मैं कौन हूँ? कहां से आया हूँ? और कहां जाऊंगा? इत्यादि। ___ आत्मा के उक्त विकास में ज्ञानावरणीय कर्म का क्षयोपशम अंतरंग कारण है। ज्ञानावरणीय कर्म के क्षयोपशम के बिना आत्मा अपने आपको पहचान ही नहीं सकता। परंतु इस स्थिति तक पहुंचने में इस अंतरंग कारण के साथ कुछ बाह्य साधन या बहिरंग कारण भी सहायक हैं। उनका सहयोग भी आत्मविकास के लिए जरूरी है। अस्तु, अपने स्वरूप का ज्ञान प्राप्त करने के लिए अंतरंग एवं बाह्य दोनों निमित्तों की अपेक्षा है। दोनों साधनों की प्राप्ति होने पर अज्ञान का पर्दा अनावृत्त होने लगता है और ज्ञान का प्रकाश फैलने लगता है और उस उज्ज्वल-समुज्ज्वल ज्योति में आत्मा अपने पूर्व भव में किये संज्ञी पंचेन्द्रिय-पशु-पक्षी एवं मनुष्य के भवों को देखने लगता है। वह भली-भांति जान लेता है कि मैं पूर्व भव में कौन था? किस योनि में था? वहां से कब चला? इत्यादि बातों का उसे परिज्ञान हो जाता है। ज्ञान-प्राप्ति में कारणभूत अंतरंग एवं बहिरंग साधनों का ही प्रस्तुत सूत्र में वर्णन किया गया है। जब कि उक्त कारणों को अंतरंग और बहिरंग दो भागों में स्पष्ट रूप से विभक्त नहीं किया गया है। फिर भी प्रस्तुत सूत्र में ज्ञान-प्राप्ति के जो साधन बताए हैं; वे साधन अंतरंग एवं बहिरंग दोनों तरह के हैं। सूत्रकार ने प्रस्तुत सूत्र में ज्ञान-प्राप्ति में तीन बातों को निमित्त माना है-1. सन्मति या स्वमति, 2. पर-व्याकरण और 3. परेतर-उपदेश। सन्मति शब्द दो पदों के सुमेल से बना है-सद्-मति। सद् शब्द प्रशंसार्थक है
SR No.002206
Book TitleAcharang Sutram Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAtmaramji Maharaj, Shiv Muni
PublisherAatm Gyan Shraman Shiv Agam Prakashan Samiti
Publication Year2003
Total Pages1026
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_acharang
File Size19 MB
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