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आहारकलब्धि नियमेन चतुर्दश पूर्वधर को ही होती है, किन्तु सभी चतुर्दश पूर्वधर आहारकलब्धि वाले होते हैं ऐसा होना नियम नहीं हैं। चार ज्ञान के धर्ता और आहारकलब्धि सम्पन्न प्रतिपाति होकर अनन्त जीव निगोद में भव भ्रमण कर रहे हैं। इस से ज्ञात होता है कि अनन्तगुणा हीन और अनन्तभागहीन चतुर्दशपूर्वधर को भी आहारकलब्धि हो सकती है। इस प्रकार के ज्ञानतपस्वी भी मिथ्यात्व के उदय से नरक और निगोद में भव भ्रमण कर सकते हैं, किन्तु अनन्तगुणा अधिक और अनन्तभाग अधिक प्रायः अप्रतिपाति होते हैं। शेष मध्यम श्रेणी वाले जीव चरमशरीरी हों और न भी हों, किन्तु वे दुर्गति में भ्रमण नहीं करते। अपितु कर्म शेष रहने पर कल्पोपन्न और कल्पातीत कहीं भी देवता बन सकते हैं। मनुष्य और देवगति के अतिरिक्त अन्य किसी गति में जन्म नहीं लेते, जब तक सिद्धत्व प्राप्त न कर लें। जैसे एक ही विषय में 100 छात्रों ने एम.ए. की परीक्षा उत्तीर्ण की। सब के अंक और श्रेणी तुल्य नहीं होती। उनमें एक वह है, जो प्रथम श्रेणी में भी सर्वप्रथम रहा। उसके लिए राजकीय उच्चतम विभागों में सर्वप्रथम स्थान है। दूसरा वह है, जिसने केवल उत्तीर्ण होने योग्य ही अंक प्राप्त किए हैं तथा निम्न श्रेणी वाले को राजकीय विभागों में स्थान भी निम्न ही मिलता है, शेष सब मध्यम श्रेणी के माने जाते हैं। वैसे ही जितने पूर्वधर होते हैं, उनमें परस्पर षाड्गुण्य हानि-वृद्धि पाई जाती है। सब में श्रुतज्ञान समान नहीं होता। जो जीव अचरम शरीरी हैं. वे बारहवें अंग का अध्ययन प्रतिपूर्ण नहीं कर सकते। गणधर के अतिरिक्त शेष मुनिवर त्रिपदी से नहीं, अध्ययन करने से दृष्टिवाद के वेत्ता हो सकते हैं।
कुछ विशिष्टतम संयत तो बिना ही वाचना लिए, बिना ही अध्ययन किए पूर्वधर हो जाते हैं, जैसे कि पोट्टिलदेव ने तेतलीपुत्र महामात्य को मोह के दलदल में फंसे हुए को परोक्ष तथा प्रत्यक्ष रूप में प्रतिबोध देकर उसकी अन्तरात्मा को जगाया है। उसके परिणाम स्वरूप तेतलीपुत्र ने ऊहापोह किया, मोहकर्म के उपशान्त हो जाने से मंतिज्ञानावरणीय के विशिष्ट क्षयोपशम से महामात्य को जातिस्मरण ज्ञान उत्पन्न हुआ। उससे उन्होंने जाना कि मैं पूर्वभव में महाविदेह क्षेत्र, उसमें पुष्कलावती विजय, उसमें भी पुण्डरीकिणी राजधानी में महापद्म नामक राजा था। चिरकाल तक राज्यलक्ष्मी का उपभोग करके स्थविरों के पास जिनदीक्षा धारण की, संयम तप की आराधना करते हुए 14 पूर्वो का ज्ञान भी प्राप्त किया, चिरकाल तक संयम की पर्याय पालकर आयु के मासावशेष रहने पर अपच्छिम मारणंतिक संलेखना की, आयु के अंतिम क्षण में समाधिपूर्वक काल करके महाशुक्र (7वें) देवलोक में देव के रूप में उत्पन्न हुआ, वहां की दीर्घ आयु समाप्त होने पर मैं यहाँ उत्पन्न हुआ हूं।
1. देखो सर्वजीवाभिगम 7वीं प्रतिपत्ति तथा भगवती सू. श. 24,1।। 2. देखो-प्रज्ञापना सूत्र, 34वां पद, वणस्सइ काइयाणं भंते ! केवइया आहारगसमुग्घाया ,
अतीता ? गोयमा ! अणंता।
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