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१३. क्रियाविशालपूर्व-क्रिया के दो अर्थ होते हैं-संयम-तप की आराधना करना, उसे भी क्रिया कहते हैं, लौकिक व्यवहार को भी क्रिया कहते हैं। इसमें 72 कलाएं पुरुषों की और 64 कलाएं स्त्रियों की, शिल्पकला, काव्यसम्बन्धी गुणदोष विधि का, व्याकरण, छन्द, अलंकार और रस इन सब का तथा धर्मक्रिया का विस्तृत वर्णन है।
१४. लोकबिन्दुसारपूर्व-संसार और उसके हेतु, मोक्ष और मोक्ष का उपाय, धर्म-मोक्ष, और लोक का स्वरूप, इनका लोक बिन्दुसार पूर्व में विवेचन है। यह पूर्व श्रुतलोक में सर्वोत्तम
____अनभिलाप्य पदार्थों के अनन्तवें भाग प्रमाण प्रज्ञापनीय पदार्थ होते हैं और प्रज्ञापनीय पदार्थों के अनन्तवें भाग प्रमाण श्रुतनिबद्ध है। संख्यात अक्षरों के समुदाय को पदश्रुत कहते हैं। संख्यात पदों का एक संघातश्रुत होता है। संख्यात श्रुतों की एक प्रतिपत्ति होती है। संख्यात प्रतिपत्तियों पर एक अनुयोग श्रुत होता है। चारों अनुयोगों का अंतर्भाव प्राभृतप्राभृत में होता है। संख्यात प्राभृतप्राभृत के समुदाय को प्राभृत कहते हैं। संख्यातप्राभृतों का समावेश एक वस्तु में हो जाता है। संख्यात वस्तुओं के समुदाय का एक पूर्व होता है। . परोक्ष प्रमाण में श्रुतज्ञान और प्रत्यक्ष प्रमाण में केवलज्ञान दोनों ही महान हैं, जिस तरह श्रुतज्ञानी सम्पूर्णद्रव्य और उनकी पर्यायों को जानता है वैसे ही केवलज्ञानी भी सम्पूर्ण द्रव्य और पर्यायों को जानता है। अन्तर दोनों में केवल इतना ही है कि श्रुतज्ञान इन्द्रिय और मन की सहायता से होता है इसलिए इसकी प्रवृत्ति अमूर्त पदार्थों में उनकी अर्थ पर्याय तथा सूक्ष्म अर्थों में स्पष्टतया नहीं होती। केवलज्ञान निरावरण होने के कारण सकल पदार्थों को विशद रूपेण विषय करता है। अंवधिज्ञान और मनःपर्यव ज्ञान ये दोनों प्रत्यक्ष होते हुए भी श्रुतज्ञान की समानता नहीं कर सकते। पांच ज्ञान की अपेक्षा श्रुतज्ञान कल्याण की दृष्टि से और परोपकार की दृष्टि से सर्वोच्च स्थान रखता है। श्रुतज्ञान ही मुखरित है, शेष चार ज्ञान मूक हैं। व्याख्या श्रुतज्ञान की ही की जा सकती है। शेष चार ज्ञान, अनुभवगम्य हैं, व्याख्यात्मक नहीं। आत्मा को पूर्णता की ओर ले जाने वाला श्रुतज्ञान ही है, मार्गप्रदर्शक यदि कोई ज्ञान है तो वह श्रुतज्ञान ही है। संयम-तप की आराधना में परीषह-उपसर्गों को सहन करने में सहयोगी साधन श्रुतज्ञान है। उपदेश, शिक्षा, स्वाध्याय, पढ़ना-पढ़ाना, मूल, टीका, व्याख्या ये सब श्रुतज्ञान हैं। अनुयोगद्वारसूत्र में श्रुतज्ञान को प्रधानता दी गई है। श्रुतज्ञान का कोई पारावार नहीं, अनन्त है। विश्व में जितनी पुस्तकें हैं, जितनी लुप्त हो गई हैं और आगे के लिए जितनी बनेंगी, उन सबका अन्तर्भाव दृष्टिवाद में हो जाता है। जो सत्यांश है वह स्वसमय है, जो असत्यांश है, वह परसमय और जो सत्य-असत्य मिश्रितांश है, वह तदुभय समय है। इस प्रकार साहित्य को तीन भागों में विभाजित करना चाहिए।