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अंग में निहित हों, जिसमें अधर्म न हो, वही धर्म कहलाता है-स धर्मो यत्र नाधर्मः। वस्तु के स्वभाव को भी धर्म कहते हैं, और स्वरूपाचरण को भी। दृष्टिवाद अंग, धर्म का अक्षय निधि है। विशुद्ध धर्म का निरूपण जितना 12वें अंग में है, उतना अन्य किसी साहित्य में नहीं
७. भाषाविजय-जिसमें असत्य तथा मिश्र भाषा के लिए कोई स्थान नहीं है, जो सत्य और व्यवहार भाषा से अनुरंजित है, उसे भाषाविजय कहते हैं। प्राकृत में विचय का भी विजय बन जाता है। विचय निर्णय को कहते हैं तथा विजय समृद्धि को। विश्व में जितनी भाषाएं हैं, उन सब का अन्तर्भाव दृष्टिवाद में हो जाता है, अर्थात् यह अंग सभी भाषाओं से समृद्ध है, कोई भी बोली या भाषा इससे बाहर नहीं रह जाती।
८. पूर्वगत-जिसमें सभी पूर्वो का ज्ञान निहित है। पूर्व उसे कहते हैं, जो सर्वश्रुत से पूर्व कथन किया गया हो, उसके अन्तर्गत को पूर्वगत कहते हैं।
९. अनुयोगगत-जो प्रथमानुयोग तथा गण्डिकानुयोग से अभिन्न हो, अथवा उपक्रम, निक्षेप, नय और अनुगम इन चार अनुयोगों से अनुरंजित हो, अथवा द्रव्यानुयोग, गणितानुयोग, चरणकरणानुयोग और धर्मकथानुयोग से ओतप्रोत, अनुस्यूत को अनुयोगगत कहते हैं। यद्यपि पूर्वगत तथा अनुयोगगत ये दोनों वाद दृष्टिवाद के ही अंश हैं, तदपि अवयव में समुदाय का उपचार करके इन दोनों को दृष्टिवाद ही कहा गया है।
- १०. सर्व प्राण-भूत-जीव-सत्व-सुखावहवाद-विकलेन्द्रियों को प्राणी, वनस्पति को भूत, पंचेन्द्रियों को जीव और पृथ्वी-अप-तेजो-वायु इन्हें सत्व कहते हैं। अथवा ये सब जीव के अपर नाम हैं, उन सबके लिए दृष्टिवाद सुखावह या शुभावह है। संयम का प्रतिपादक होने से तथा सबके निर्वाण का कारण होने से यह अंग सर्व प्राणी-भूत जीव-सत्व हितावहवाद कहलाता है। परिकर्म की व्याख्या - परिकर्म दृष्टिवाद का प्रथम अध्ययन है, इसमें अधिकतर विषय गणितानुयोग का है। गणित अन्य विद्याओं की अपेक्षा अधिक व्यापक है। गणितविशेषज्ञ किसी भी कार्य में असफल नहीं रह सकता। गणित प्रथम श्रेणी से लेकर एम.ए. पर्यन्त पढ़ाया जाता है, तत्पश्चात् अनुसन्धान करने पर पी-एच.डी. की उपाधि भी प्राप्त की जाती है। जो भी विश्व में पी.एच-डी. उपाधिधारी हैं, वे भी गणित के सब प्रकारों को नहीं जानते। गणित केवल
1. दिट्ठिवायस्सणं दस नामधेज्जा प.तं.-दिट्ठिवातेति वा, हेउवातेति वा, भूयवातेति वा, तच्चवातेति वा, सम्मावातेति वा, धम्मावातेति वा, भासावातेति वा, पुव्वगतेति वा, अणुजोगगतेति वा, सळ्याणभूयजीवसत्तसुहावहेति वा।
-स्थानांग सूत्र, स्था. 10वां, सू. 742
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