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अतिमुक्तकुमार ( एवंताकुमार ) जी ने भी ग्यारह अंग सूत्रों का अध्ययन किया, जिनका विस्तृत वर्णन अन्तगड सूत्र के छठे वर्ग में है, स्कन्धक संन्यासी जो कि महावीर स्वामी के सुशिष्य बने, उन्होंने भी एकादशांग गणिपिटक का अध्ययन किया, ऐसा भगवती सूत्र में स्पष्टोल्लेख है। इसी प्रकार मेघकुमार मुनिवर ने भी ग्यारह अंग सूत्रों का श्रुतज्ञान प्राप्त किया है, ऐसा ज्ञाताधर्म कथा सूत्र में वर्णित है । इत्यादि अनेक उद्धरणों से प्रश्न उत्पन्न होता है क्या उन्होंने उन आगमों में अपने ही इतिहास का अध्ययन किया है ? इसका उत्तर इकरार में नहीं, इन्कार में ही मिल सकता है। इन प्रमाणों से यह सिद्ध होता है कि जो सूत्र वर्तमान काल में उपलब्ध हैं, वे उनके अध्येता नहीं थे, उन्होंने सुधर्मास्वामी के अतिरिक्त अन्य किसी गणधर की वाचना के अनुसार ग्यारह अंगों का अध्ययन किया । दृष्टिवाद में आजीविक और त्रैराशिक मत का वर्णन मिलता है, तो क्या भगवान् ऋषभदेव के युग में भी इन मतों का वर्णन दृष्टिवाद में था ? गण्डिकानुयोग में एक भद्रबाहुगण्डिका है तो क्या ऋषभदेव भगवान् के युग में भी भद्रबाहुगण्डिका थी ? इनके उत्तर में कहना होगा कि इन स्थानों की पूर्ति तत्संबंधित अन्य विषयों से हो सकती है। निष्कर्ष यह निकला कि इतिहास दृष्टान्त शिक्षा उपदेश तत्त्व-निरूपण की शैली सबके युग में एक समान नहीं रहती। हां, द्वादशांग गणिपिटक के नाम सदा अवस्थित एवं शाश्वत हैं, वे नहीं बदलते हैं। जिस अंग सूत्र का जैसा नाम है, उसमें तदनुकूलं विषय सदा-काल से पाया जाता है। विषय की विपरीतता किसी भी शास्त्र में नहीं होती। ऐसा कभी नहीं होता कि आचारांग में उपासकों का वर्णन पाया जाए और उपासकदशा में आचारांग का विषय वर्णित हो। जिस आगम का जो नाम है, तदनुसार विषय का वर्णन सदा-सर्वदा उसमें पाया जाता है।
द्वादशांग गणिपिटक प्रामाणिक आगम हैं, इनमें संशोधन, परिवर्धन तथा परिवर्तन करने का अधिकार द्रव्य, क्षेत्र, काल और भाव को देखते हुए श्रुतकेवली को है, अन्य किसी को नहीं। और तो क्या अक्षर, मात्रा, अनुस्वार आदि को भी न्यून - अधिक करने का अधिकार नहीं है जं वाइद्धं वच्चामेलियं, हीणक्खरं, अच्चक्खरं, पयहीणं, घोसंहीणं इत्यादि श्रुतज्ञान के अतिचार हैं। अतिचार के रूप में ये तभी तक हैं, जब तक कि भूल एवं अबोध अवस्था में ऐसा हो जाए। यदि जानबूझ कर अनधिकार चेष्टा की जाए तो अतिचार नहीं, अपितु अनाचार का भागी बनता है। अनाचार मिथ्यात्व एवं अनन्त संसार का पोषक है । वेद, बाईबल, कुरान, जैसे इनमें किसी मंत्र, पाठ, आयत आदि का कोई भी उसका अनुयायी हेर-फेर नहीं करता, इतना ही नहीं प्रत्येक अक्षर व पद का वे सम्मान करते हैं, इसी प्रकार हमें भी आगम . के प्रत्येक पद का सम्मान करना चाहिए। ऐसे ही अर्थ के विषय में समझना चाहिए । आगम- अनुकूल चाहे जितना भी अर्थ निकल सके अधिक से अधिक निकालने का प्रयास करना चाहिए इसमें कोई दोष नहीं है, बल्कि प्रवचन प्रभावना ही है। जो सिद्धान्त आदि अपनी समझ में न आए वह गलत है, असंभव है, आगमानुयायी को ऐसा न कभी कहना
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