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________________ 2. सांख्य दर्शन इन्द्रिय प्रवृत्ति को प्रमाण मानता है । ' 3. प्रभाकर मीमांसक लोग, प्रमाता के व्यापार को प्रमाण मानते हैं। 2 4. जिस वस्तुतत्त्व का ज्ञान पहले नहीं प्राप्त किया, भाट्ट लोग उसे प्रमाण मानते हैं। 5. 'जो विज्ञान अपने विषय को यथार्थरूप से ग्रहण करता है, उसे प्रमाण कहते हैं, ' यह मान्यता बौद्धों की है। ' 6. स्व-पर का निश्चय कराने वाले ज्ञान को प्रमाण मानने वाले जैन हैं ।' चार्वाक - केवल प्रत्यक्ष को ही प्रमाण मानते हैं । बौद्ध- प्रत्यक्ष और अनुमान ये दो प्रमाण मानते हैं। सांख्य प्रत्यक्ष-अनुमान और शब्द ये तीन प्रमाण मानते हैं। न्यायदर्शन- प्रत्यक्ष-अनुमान- शब्द और उपमान ये चार प्रमाण मानता है । प्राभाकर-अर्थापत्ति सहित पांच प्रमाण मानते हैं। वेदान्त दर्शन और भाट्ट ये अभाव सहित 6 प्रमाण मानते हैं। जैन दार्शनिक प्रत्यक्ष और परोक्ष ये दो प्रमाण मानते हैं। नन्दीसूत्र में पांच ज्ञानों में अवधि, मनः पर्यव और केवलज्ञान ये तीन ज्ञान, प्रत्यक्ष प्रमाण में गर्भित किए हैं। इन्हें किसी बाह्य निमित्त की आवश्यकता नहीं रहती, न इन्द्रियों की, न मन की और न आलोक की, उस ज्ञान का सम्बन्ध तो सीधा आत्मा से ही होता है। जैसे-जैसे क्षयोपशम की तरतमता होती है, वैसे-वैसे प्रत्यक्ष होता है, किन्तु सकलादेश प्रत्यक्ष में आवरण का सर्वथा क्षय होना अनिवार्य है, तभी केवलज्ञान प्रत्यक्ष होता है, स्पष्ट ज्ञान को प्रत्यक्ष कहते हैं। नन्दीसूत्र में पहले प्रत्यक्ष के दो भेद बतलाएं हैं, इन्द्रियप्रत्यक्ष और नोइन्द्रिय-प्रत्यक्ष। इन्द्रियप्रत्यक्ष सांव्यवहारिक है न कि पारमार्थिक । नो - इन्द्रिय प्रत्यक्ष के तीन भेद गिनाए हैं, जैसे कि - अवधिज्ञान, मनः पर्यवज्ञान, और केवलज्ञान ये उत्तरोत्तर विशुद्धतर, विशुद्धतम हैं। सूत्रकार ने प्रत्यक्ष ज्ञान की मुख्यता और स्पष्टता को तथा वर्णन की दृष्टि से अल्पता को लक्ष्य में रखकर उपर्युक्त तीन ज्ञान का वर्णन पहले किया है। इन्द्रिय और मन की सहायता से जो ज्ञान होता है, वह मतिज्ञान है । मतिज्ञान से जाने हुए पदार्थ का अवलम्बन लेकर मतिपूर्वक जो अन्य पदार्थों का ज्ञान होता है, वहं श्रुतज्ञान है। मतिज्ञान को सांव्यवहारिक प्रत्यक्ष कहा है। और स्मृति, प्रत्यभिज्ञान, तर्क, अनुमान तथा 1. इन्द्रिय प्रवृत्तिः प्रमाणमिति कापिलः । 2. प्रमातृव्यापारः प्रमाणमिति प्रभाकराः । 3. अनधिगतार्थं प्रमाणमिति भाट्टा: । 4. अविसंवादि प्रमाणमिति सौगतः । 5. प्रमाणनयतत्त्वालोकवादिदेवसूरि कृत जैनाः । 54
SR No.002205
Book TitleNandi Sutram
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAtmaramji Maharaj, Shiv Muni
PublisherBhagwan Mahavir Meditation and Research Center
Publication Year2004
Total Pages546
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_nandisutra
File Size12 MB
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