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________________ है। उस युग में आगमों का अध्ययन और अध्यापन बिना किसी वृत्ति, चूर्णि तथा भाष्य के, सुचारु रूपेण चल रहा था । आगमों के अतिरिक्त अन्य कुछ पढ़ने-पढ़ाने की उन्हें किसी प्रकार की आवश्यकता ही नहीं रहती थी, उनकी संतुष्टि सर्वतोभावेन आगमों से ही हो जाती थी, क्योंकि वाचनाचार्य के द्वारा उनकी ज्ञान पिपासा सब तरह से शान्त हो जाती थी, विद्या के पारगामी तो वे घर में ही होते थे । मुमुक्षुओं की अभिरुचि सदाकाल से आगमों की ओर ही रही है। आगम आध्यात्मिक शास्त्र हैं, इन्हीं के अध्ययन से संयम मार्ग में प्रगति हो सक है, अन्यथा नही । मनुष्य जिस कार्यक्षेत्र में उतरता है, वह तद् विषयक ज्ञान प्राप्त करने में अधिक लालायित रहता है तथा अभिरुचि रखता है। महाव्रती का उच्च जीवन आगमों के श्रद्धापूर्वक किए जाने वाले अध्ययन से ही हो सकता है । आगम युग प्रायः आगम व्यवहारियों का रहा है। उस युग में अन्य किसी व्यवहार की आवश्यकता नहीं रहती। अनुयोगाचार्य और मुमुक्षु. शिष्यों का युग ही आगमयुग कहलाता है। द्वादशांग गणिपिटक के अतिरिक्त 12 उपांग, 4 मूल, 4 छेद इत्यादि आगमों की रचना श्रुतकेवली स्थविरों ने शिष्यों की सुगमता की लिए की है। जब काल के प्रभाव से दृष्टिवाद का व्यवच्छेद हुआ तब सूत्र व्यवहारियों का युग आया। अवशिष्ट तथा उपलब्ध आगमों को सुरक्षित रखने के लिए विशिष्ट प्रतिभाशाली आचार्यों ने निर्युक्ति, वृत्ति, चूर्णि एवं भाष्य इत्यादि रचनाओं से शिष्यों की अभिरुचि आगमों के प्रति न्यून नहीं होने दी। तत्पश्चात् शास्त्रार्थ का युग आया, प्रमाण लक्षण, सप्तभंगी नव्य न्याय की ओर अभिरुचि बढ़ाई। इससे आगमों की प्रगति तो कुछ मन्थर हो गई, किन्तु प्रवचन प्रभावना से तथा प्रवादी रूप आततायियों से श्रीसंघ की रक्षा के प्रति श्रमणों का मन आकृष्ट हुआ। श्रमणवर्ग संयम और तप से अपनी, प्रवचन की तथा श्रीसंघ की रक्षा करने में सदाकाल से ही अग्रसर रहा है, उसने एड़ी की जगह अंगूठा नहीं रखा। आगमों की भाषा अर्धमागधी आगम-भाषा सदा काल से अर्धमागधी ही रही है। जैन परम्परा के अनुसार तीर्थंकर' अर्धमागधी भाषा में प्रवचन, देशना एवं शिक्षा देते हैं। तीर्थंकर अर्धमागधी के अतिरिक्त अन्य भाषा नहीं बोलते। वैसे तो केवलज्ञानी सभी भाषाओं के परिज्ञाता होते हैं । फिर भी सुकोमल और सर्वोत्तम होने के कारण भगवान् अर्धमागधी भाषा में ही देशना देते हैं। प्रभु के द्वारा उच्चारित वह भाषा आर्य-अनार्य, द्विपद-चतुष्पद सब के लिए हितकर शिवंकर एवं सुखप्रदात्री 1. भगवं च णं अद्धमागहीए भासा धम्ममाइक्खइ, सा वि य णं अद्धमागही भासा भासिज्जमाणी तेसिं सव्वेसिं आरियमणारियाणं दुप्पयचउप्पय-मिय- पसुपक्खिसरीसिवाणं अप्पणो हिय-सिव - सुह भासत्ताए परिणमइ । - समवायांग सूत्र, 34 वां समवाय । *52
SR No.002205
Book TitleNandi Sutram
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAtmaramji Maharaj, Shiv Muni
PublisherBhagwan Mahavir Meditation and Research Center
Publication Year2004
Total Pages546
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_nandisutra
File Size12 MB
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