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रहे हैं और अनागत काल में उल्लंघन करेंगे। जिस प्रकार अटवी विविध प्रकार के हिंस्र जन्तुओं और नाना प्रकार के उपद्रवों से युक्त होती है, उसमें गहन अन्धकार होता है, उसे पार करने के लिए तेजपुंज की परम आवश्यकता रहती है, वैसे ही संसार कानन भी शारीरिक, मानसिक, जन्म-मरण और रोग-शोक से परिपूर्ण है, उसे श्रुतज्ञान के प्रकाश-पुंज से ही पार किया जा सकता है। आत्म-कल्याण में और पर-कल्याण में परम सहायक श्रुतज्ञान ही है। अत: इसका आलंबन प्रत्येक मुमुक्षु को ग्रहण करना चाहिए, व्यर्थ के विवाद में नहीं पड़ना चाहिए। सूत्रों में जो स्वानुभूतयोग आत्मोत्थान, कल्याण एवं स्वस्थ होने के साधन बताए हैं, उनका यथाशक्ति उपयोग करना चाहिए, तभी कर्मों के बन्धन कट सकते हैं श्रुतज्ञान स्व-पर प्रकाशक है। सन्मार्ग में चलना और उन्मार्ग को छोड़ना ही इस ज्ञान का मुख्य उद्देश्य है। जहां ज्ञान का प्रकाश होता है, वहां रागद्वेषादि चोरों का भय नहीं रहता। निर्विघ्नता से सुख पूर्वक जीवन यापन करना और अपने भविष्य को उज्ज्वल बनाना यही श्रुतज्ञानी बनने का सार है।
. द्वादशांगगणिपिटक का स्थायित्व मूलम्-इच्चेइ दुवालसंगं गणिपिडगं न कयाइ नासी, न कयाइ न भवइ, न कयाइ न भविस्सइ। - भुविंच, भवइ अ, भविस्सइ आधुवे, निअए, सासए, अक्खए, अव्वए, अवट्ठिए, निच्चे। - से जहानामए पंचत्थिकाए, न कयाइ नासी, न कयाइ नत्थि, न कयाइ न भविस्सइ। भुविं च भवइ अ, भविस्सइ आधुवे, नियए, सासए, अक्खए, अव्वए, अवट्ठिए, निच्चे।
एवामेव दुवालसंगे गणिपिडगे न कयाइ नासी, न कयाइ नत्थि, न कयाइ न भविस्सइ। भुविं च भवइ अ, भविस्सइ अ, धुवे, निअए, सासए, अक्खए, अव्वए, अवट्ठिए, निच्चे।
से समासओ चउविहे पण्णत्ते, तंजहा-दव्वओ, खित्तओ, कालओ, भावओ, तत्थ
दव्वओ णं सुअनाणी उवउत्ते सव्वदव्वाई जाणइ, पासइ, खित्तओ णं सुअनाणी उवउत्ते सव्वं खेत्तं जाणइ, पासइ, कालओ णं सुअनाणी उवउत्ते सव्वं कालं जाणइ, पासइ, भावओ णं सुअनाणी उवउत्ते सव्वे भावे जाणइ, पासइ ॥ सूत्र ५७ ॥
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