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________________ च्युताऽच्युत - श्रेणिकापरिकर्म सम्पूर्ण हुआ । आदि के छह परिकर्म चार नयों के आश्रित होकर कहे गये हैं और सात परिकर्मों में त्रैराशिक दर्शन का दिग्दर्शन कराया गया है । इस प्रकार यह परिकर्म का विषय हुआ । टीका-इस सूत्र में परिकर्म के अन्तिम भेद का वर्णन किया गया है अर्थात् च्युताऽच्युतश्रेणिका परिकर्म, इस का वास्तविक विषय और अर्थ क्या है, इस का उत्तर निश्चयात्मक तो दिया नहीं जा सकता, क्योंकि वह श्रुत व्यवच्छिन्न हो गया है, फिर भी इस में त्रैराशिक मत का सविस्तर वर्णन है। - जैसे स्वसमय में सम्यग्दृष्टि, मिथ्यादृष्टि और मिश्रदृष्टि एवं संयत, असंयत और संयतासंयत, सर्वाराधक, सर्वविराधक, और देश आराधक - विराधक की परिगणना की गई है, हो सकता है, त्रैराशिक मत में अच्युत - च्युत, च्युताच्युत शब्द प्रचलित हों। इसमें छ चउक्कनइआई, सत्ततेरासियाइं, यह पद दिया है, इस का भाव यह है कि आदि के छ परिकर्म चार नयों की. अपेक्षा से वर्णित हैं, इन में स्वसिद्धान्त का वर्णन किया गया है, सातवें परिकर्म में त्रैराशिक का उल्लेख किया गया है। वैसे तो समुच्चय सातों प्रकरणों में यत्किंचित् रूपेण त्रैराशिक का ही वर्णन मिलता है। परन्तु उन में उसकी मुख्यता नहीं है। जीव- अजीव और जीवाजीव इस प्रकार तीन पदार्थ, तीन नय की मान्यता रखने वाले मत को ही त्रैराशिक कहते हैं।. २. सूत्र मूलम् - से किं तं सुत्ताइं ? सुत्ताइं बावीसं पन्नत्ताई, तं जहा १. उज्जुसुयं २. परिणयापरिणयं ३. बहुभंगिअं, ४. विजयचरियं, ५. अनंतरं, ६. परंपरं, ७. आसाणं, ८. संजूह, ९. संभिण्णं, १०. अहव्वायं, ११. सोवत्थिआवत्तं, १२. नंदावत्तं, १३. बहुलं, १४. पुट्ठापुट्ठे, १५. विआवत्तं, १६. एवंभूअं, १७. दुयावत्तं, १८. वत्तमाणपयं, १९. समभिरूढं, २०. सव्वओभद्दं, २१. पस्सासं, २२. दुप्पडिग्गहं । इच्चेइआई बावीसं सुत्ताइं छिन्नच्छेअनइआणि ससमय- सुत्तपरिवाडीए, इच्चे आई बावीसं सुत्ताई अच्छिन्नच्छेअनइआणि आजीविअसुत्तपरिवाडीए, इच्चे आई बावीस सुत्ताइं तिगणइयाणि तेरासिअ सुत्तपरिवाडीए, इच्चेइआई बावीस सुत्ताइं चउक्क - नइ आणि ससमयसुत्त - परिवाडीए । एवामेव सपुव्वावरेण अट्ठासीई सुत्ताइं भवतीतिमक्खायं, से त्तं सुत्ताई। छाया - अथ कानि तानि सूत्राणि ? सूत्राणि द्वाविंशतिः प्रज्ञप्तानि, तद्यथा१. ऋजुसूत्रम्, २. परिणता परिणतम्, ३. बहुभङ्गिकम्, ४. विजयचरितम्, ५. 482
SR No.002205
Book TitleNandi Sutram
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAtmaramji Maharaj, Shiv Muni
PublisherBhagwan Mahavir Meditation and Research Center
Publication Year2004
Total Pages546
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_nandisutra
File Size12 MB
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