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वह अंग की अपेक्षा से चौथा अंग है। एक श्रुतस्कन्ध, एक अध्ययन, एक उद्देशनकाल और एक समुद्देशन काल है। पदपरिमाण एक लाख चौतालीस हजार है। संख्यात अक्षर, अनन्त गम, अनन्त पर्याय, परिमित त्रस, अनन्त स्थावर तथा शाश्वत-कृत-निबद्ध-निकाचित जिन प्ररूपित भाव, प्ररूपण, दर्शन, निदर्शन और उपदर्शन से सुस्पष्ट किए गए हैं।
समवायांग का अध्येता तदात्मरूप, ज्ञाता और विज्ञाता हो जाता है। इस प्रकार समवायांग में चरण-करण की प्ररूपणा की गयी है। यह समवायांग का विषय है. ॥ सूत्र ४९ ॥
टीका-इस सूत्र में समवायांगश्रुत का संक्षिप्त परिचय दिया है। जिसमें जीवादि पदार्थों का निर्णय हो, उसे समवाय कहते हैं, जैसे कि सम्यगवायो-निश्चयो जीवादीनां पदार्थानां . यस्मात्स समवायः जो सूत्र में समासिज्जन्ति' इत्यादि पद दिए हैं, उनका यह भाव है कि सम्यग् यथावस्थित रूप से, बुद्धि द्वारा ग्राह्य अर्थात् ज्ञान से ग्राह्य पदार्थों को स्वीकार किया जाता है अथवा जीवादि पदार्थ कुप्ररूपण से निकाल कर सम्यक् प्ररूपण में समाविष्ट किए जाते हैं, जैसे कि कहा भी है- “समाश्रीयन्ते समिति सम्यग् यथावस्थिततया आयन्ते बुध्या स्वीक्रियन्ते अथवा जीवाः समस्यन्ते कुप्ररूपणाभ्यः समाकृष्य सम्यक् प्ररूपणायां प्रक्षिप्यन्ते।"
इस सूत्र में जीव, अजीव तथा जीवाजीव, जैन दर्शन, इतरदर्शन, लोक, अलोक इत्यादि विषय स्पष्ट रूप से वर्णन किए गए हैं। फिर एक अंक से लेकर सौ अंक पर्यन्त जो-जो विषय जिस-जिस अंक में गर्भित हो सकते हैं, उनका सविस्तर रूप से वर्णन किया गया है।
इस श्रुतांग में 275 सूत्र हैं, अन्य कोई स्कन्ध, वर्ग, अध्ययन, उद्देशक आदि रूप से विभाजित नहीं है। स्थानांग की तरह इसमें भी संख्या के क्रम से वस्तुओं का निर्देश निरन्तर शत पर्यन्त करने के पश्चात् दो सौ, तीन सौ, इसी क्रम से सहस्र पर्यन्त विषयों का वर्णन किया है, जैसे कि पार्श्वनाथ भगवान् की तथा सुधर्मास्वामी की आयु 100 वर्ष की थी। महावीर भगवान् के 300 शिष्य 14 पूर्वो के ज्ञाता थे, 400 शास्त्रार्थ महारथी थे। इस प्रकार संख्या बढ़ाते हुए कोटि पर्यन्त ले गए हैं, जैसे कि भगवान् ऋषभदेव से लेकर अन्तिम तीर्थंकर महावीर स्वामी पर्यन्त काल का अन्तर एक सागरोपम करोड़ निर्दिष्ट किया गया है।
तत्पश्चात् द्वादशांग गणिपिटक का संक्षिप्त परिचय दिया गया है। त्रिषष्टि शलाका पुरुषों का नाम, माता-पिता, जन्म, नगरी, दीक्षास्थान इत्यादि का वर्णन किया है। मोहकर्म के 52 पर्यायवाची नाम गिनाए हैं। 72 कलाओं के नाम निर्देश किए गए हैं। जैन सिद्धान्त तथा इतिहास की परम्परा की दृष्टि से यह श्रुतांग महत्वपूर्ण है। इसमें अधिकांश गद्य रचना है, कहीं-कहीं गाथाओं द्वारा भी विषय प्रस्तुत किया गया है। सूत्र ।। 49 ।।।
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