________________
केवल आकाश द्रव्य वाला अलोक सूचित किया जाता है, लोकालोक दोनों सूचित किए जाते हैं। इसी प्रकार जीव, अजीव और जीवाजीव की सूचना की जाती है, एवमेव स्वमत, परमत और स्व- परमत की सूचना की जाती है ।
सूत्रकृतांग में १८० क्रियावादियों के मत एवं ६७ अज्ञानवादी इत्यादि ३६३ पाषण्डियों का व्यूह बनाकर स्वसिद्धान्त की स्थापना की जाती है।
सूत्रकृतांग में परिमित वाचनाएं हैं, संख्यात अनुयोगद्वार, संख्यात छन्द, संख्यात श्लोक, संख्यात निर्युक्तिएं, संख्यात संग्रहणिएं और संख्यात प्रतिपत्तिएं हैं।
यह अंग अर्थ की दृष्टि से दूसरा है। इसमें दो श्रुतस्कन्ध और २३ अध्ययन हैं। तथा ३३ उद्देशनकाल, ३३ समुद्देशनकाल हैं । सूत्रकृतांग का पदपरिमाण ३६ हजार है। इसमें संख्यात अक्षर, अनन्त गम, अनन्त पर्याय और परिमित त्रस तथा अनन्त स्थावर हैं । धर्मास्तिकाय आदि द्रव्यरूप से और प्रयोग व विश्वसा, करण रूप से निबद्ध एवं हेतु आदि द्वारा सिद्ध किए गए जिन प्रणीत भाव कहे जाते हैं तथा प्रज्ञापन, प्ररूपण, निदर्शन और उपदर्शन किए जाते हैं।
सूत्रकृतांग का अध्ययन करने वाला तद्रूप अर्थात् सूत्रगत विषयों में तल्लीन होने से तदाकार आत्मा, ज्ञाता एवं विज्ञाता हो जाता है। इस प्रकार से इस सूत्र में चरण - करण की प्ररूपणा कही जाती है। यह सूत्रकृतांग का वर्णन है | सूत्र ४७ ॥
टीका-अब सूत्रकार सूत्रकृतांग का संक्षिप्त परिचय देते हैं। 'सूच्' सूचायां धातु से 'सूचकृत' बनता है, इसका आशय यह है कि जो सभी जीव आदि पदार्थों का बोध कराता है, वह सूचकृत है। अथवा सूचनात् सूत्रम् जो मोहनिद्रा में सुप्त प्राणियों को जगाए अथवा पथभ्रष्ट हुए जीवों को सन्मार्ग की ओर संकेत करे, वह सूचकृत कहलाता है । बिखरे हुए मुक्ता या मणियों को सूत्र - धागे में पिरोकर जैसे एकत्रित किया जाता है, वैसे ही जिसके द्वारा विभिन्न विषयों को तथा मत-मतान्तरों की मान्यताओं को एक किया जाता है, उसे भी सूत्रकृत कहते हैं। यद्यपि सभी अंग सूत्ररूप हैं, तदपि रूढिवश यही अंगसूत्र सूत्रकृतांग कहलाता है।
इस सूत्र में लोक, अलोक और लोकालोक का स्वरूप प्रतिपादन किया गया है। | शुद्ध जीव परमात्मा है, तथा शुद्ध अजीव जड़ पदार्थ और जीवाजीव अर्थात् संसारी जीव शरीर से युक्त होने से जीवाजीव कहलाते हैं। जैसे एक ओर शुद्ध स्वर्ण है, और दूसरी ओर तांबा है, तीसरी ओर उभयात्मक है। वैसे ही सूक्ष्म या स्थूल शरीर में रहा हुआ जीव उभयात्मक कहलाता है, क्योंकि शरीर जड़ है और आत्मा चेतनस्वरूप है। इसलिए स्थानांग सूत्र के दूसरे स्थान में संसारी जीवों को अपेक्षाकृत रूपी कहा है। फिर भी न जीव जड़ बनता है और न जड़ कभी जीव ही बनता है। जैसे स्वर्ण और ताम्बे को एक साथ कुठाली में ढालकर रख जाए और यदि वे हजारों-लाखों वर्षों तक एकमेक मिले रहें तो भी स्वर्ण, ताम्बा नहीं बनता
❖ 443❖