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उवदंस्मिजंति-इस प्रकार सुगम रीति से कथन किए गए हैं, जिससे शिष्य की बुद्धि में अधिक शंका उत्पन्न न हो।
इस अंग की अधिकांश रचना गद्यात्मक है, पद्य बीच-बीच में कहीं कहीं आते हैं, अर्धमागधी भाषा का स्वरूप समझने के लिए यह रचना महत्त्वपूर्ण है। सातवें अध्ययन का नाम महापरिज्ञा है, किन्तु काल-दोष से उस का पाठ व्यवच्छिन्न हो गया है । उपधान नामक नवें अध्ययन में भगवान महावीर की तपस्या का बड़ा विचित्र और मार्मिक वर्णन है। वहां उन के लाढ, वज्रभूमि और शुभ्रभूमि में विहार और नाना प्रकार के घोर उपसर्ग सहन करने का स्पष्ट उल्लेख है। पहले श्रुतस्कन्ध के 9 अध्ययन हैं, और 44 उद्देशक हैं। दूसरे श्रुतस्कन्ध में श्रमण के लिए निर्दोष भिक्षा का, आहार पानी की शुद्धि, शय्या - संस्तरण-विहारचातुर्मास-भाषा-वस्त्र, पात्र आदि उपकरणों का वर्णन है, मल-मूत्र यत्ना से त्यागना, और तत्सम्बन्धी 25 भावनाओं के स्वरूप का, महावीर स्वामी के पहले कल्याणक से लेकर दीक्षा, केवलज्ञान और उपदेश आदि का सविस्तर वर्णन है । द्वितीय श्रुतस्कन्ध 16 अध्ययनों में विभाजित है। इस की भाषा पहले स्कन्ध की अपेक्षा सुगम है। इस सूत्र में उद्देशकों की गणना इस प्रकार है
महाव्रत
अध्ययन - 1
उद्देशक- 7
2
6
3
4
4
4
प्रथम श्रुतस्कन्ध
5
6
द्वितीय श्रुतस्कन्ध
6
5
7 8 9
0 7 4
अध्ययन- 10 11 12 13 14 15 16 17 18 19 20 21 22 23 24 25 |उद्देशक - 11 3 3 2 2 2 2 1 1 1 1 1 1 1 1 1
आचारांग के पठन का साक्षात् एवं परम्परा का फल वर्णन करते हुए कहा है-इस के पठन से अज्ञान की निवृत्ति होती है, यह साक्षात् फल है। तदनुसार क्रियानुष्ठान करने से आत्मा तद्रूपं अर्थात् ज्ञान-विज्ञानरूप हो जाता है अथवा उन भावों का पूर्ण ज्ञाता और विज्ञाता हो जाता है। इसी प्रकार उक्त सूत्र में चरण - करण की प्ररूपणा की गई है। कर्मों की निर्जरा, कैवल्य प्राप्ति, सर्व दुखों से सर्वथा और सदा के लिए मुक्त हो जाना, अपुनरावृत्तिरूप सिद्ध गति को प्राप्त होना, इस शास्त्र के पठन-पाठन का परम्परागत फल है । सूत्र 46 ॥
२. श्रीसूत्रकृतांग
मूलम् - से किं तं सूअगडे ? सूअगडे णं लोए सूइज्जइ, अलोए सूइज्जइ, लोआलोए सूइज्जइ, जीवा सूइज्जति, अजीवा सूइज्जति, जीवाजीवा सूइज्जति, ससमए सूइज्जइ, परसमए सूइज्जइ, ससमए-परसमए सूइज्जइ ।
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