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________________ "इह पुरुषस्य द्वादशांगानि भवन्ति तद्यथा - द्वौ पादौ, द्वे जंघे, द्वे उरूणी, द्वे गात्रार्द्धे, द्वौ बाहू, ग्रीवाशिरश्च एवं श्रुतरूपस्यापि परमपुरुषस्याऽऽचारादीनि द्वादशांगानि क्रमेण वेदितव्यानि, तथा चोक्तम् पाय दुगं जंघोरू गाय दुगद्धं तु दो य बाहू | गीवा सिरं च पुरिसो, बारस अंगो सुय विसिट्ठों ॥ जिन शास्त्रों की रचना तीर्थंकरों के उपदेशानुसार गणधर स्वयं करते हैं, वे अंग सूत्र कहे जाते हैं। गणधरों के अतिरिक्त, अंगों का आधार लेकर जो स्थविरों के द्वारा प्रणीतशास्त्र हैं, वे अंगबाह्य कहलाते हैं। वृत्तिकार के शब्द एतद् विषयक निम्नलिखित हैं ‘“अथवा यद्गणधरदेवकृतं तदङ्गप्रविष्टं मूलभूतमित्यर्थः गणधरदेवा हि मूलभूतमाचारादिकं श्रुतमुपरचयन्ति तेषामेव सर्वोत्कृष्ट श्रुतलब्धिसम्पन्नतया तद्चयितुमीशत्वात् न शेषाणां ततस्तत्कृतसूत्रं मूलभूतमित्यङ्ङ्गप्रविष्टमुच्यते, यत्पुनः शेषैः श्रुतस्थविरैस्तदेकदेशमुपजीव्य विरचितं तदनङ्गप्रविष्टम्।” अथवा यत् सर्वदैव नियतमाचारादिकं श्रुते तदङ्गप्रविष्टम्, तथाहि आचारादिकं श्रुतं सर्वेषु सर्वकालं चार्थक्रमं चाधिकृत्यैवमेवव्यवस्थितं ततस्तमंगप्रविष्टमंगभूतं मूलभूतमित्यर्थः, शेषं त ु यच्छ्र, तं तदनियतमतस्तदनंगप्रविष्टमुच्यते, उक्तञ्च गणहरकयमङ्गकयं, जं कय थेरेहिं, बाहिरं तं तु । निययं वाङ्गपविट्ठ, अणिययसुयं • बाहिरं भणियं ॥ अंगबाह्य सूत्र दो प्रकार के होते हैं- आवश्यक और आवश्यक से व्यतिरिक्त । आवश्यक सूत्र में अवश्यकरणीय क्रिया-कलाप का वर्णन है। गुणों के द्वारा आत्मा को वश करना आवश्यकीय है। ऐसा वर्णन जिसमें हो, उसे आवश्यक श्रुत कहते हैं। इसके छ: अध्ययन हैं, जैसे कि सामायिक, जिनस्तव, वन्दना, प्रतिक्रमण, कायोत्सर्ग और प्रत्याख्यान । इन छहों में सभी क्रिया-कलापों का अन्तर्भाव हो जाता है। अत: अंगबाह्य सूत्रों में सर्वप्रथम नामोल्लेख आवश्यक सूत्र का मिलता है, तत्पश्चात् अन्यान्य सूत्रों का। दूसरा कारण 34 असज्झाइयों में आवश्यक सूत्र की कोई असज्झाई नहीं है। तीसरा कारण इसका विधिपूर्वक अध्ययन, संध्या के उभय काल में करना आवश्यकीय है, इसी कारण इसका नामोल्लेख अंगबाह्य सूत्रों में सर्वप्रथम किया है। मूलम्[-से किं तं आवस्सय- वइरित्तं ? आवस्सय- वइरित्तं दुविहं पण्णत्तं, तं जहा - १. कालिअं च २. उक्कालिअं च। से किं तं उक्कालिअं ? उक्कालिअं अणेगविहं पण्णत्तं, तं जहा - १. दसवेआलिअं, २. कप्पिआकप्पिअं, ३. चुल्लकप्पसुअं, ४ महाकप्पसुअं, ५. उववाइअं, ६. रायपसेणिअं, ७. जीवाभिगमो, ८. पण्णवणा, ९. ❖424❖
SR No.002205
Book TitleNandi Sutram
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAtmaramji Maharaj, Shiv Muni
PublisherBhagwan Mahavir Meditation and Research Center
Publication Year2004
Total Pages546
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_nandisutra
File Size12 MB
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