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पडुच्च-एक पुरुष की अपेक्षा से, साइयं सपज्जवसिअं-सादि सपर्यवसित है, बहवे पुरिसे य पडुच्च-और बहुत पुरुषों की अपेक्षा से, अणाइयं अपज्जवसिअं-अनादि अपर्यवसित
खेत्तओ णं-क्षेत्र की अपेक्षा से, पंच भरहाई-पांच भरत, पंचेरवयाई-पांच ऐरावत की, पडुच्च-अपेक्षा, साइअंसपज्जवसिअं-सादि सपर्यवसित है, पंच-पांच, महाविदेहाई पडुच्च-महाविदेह. की अपेक्षा से, अणाइयं अपज्जवसिअं-अनादि अपर्यवसित है। ..
कालओ णं-काल से, उस्सप्पिणिं ओसप्पिणिं च पडुच्च-उत्सर्पिणी और अवसर्पिणी की अपेक्षा से, साइअंसपज्जवसिअं-सादि सपर्यवसित है, नो उस्सप्पिणिं नो ओसप्पिणिं च पडुच्च-न उत्सर्पिणी और न अवसर्पिणी की अपेक्षा से, अणाइयं अपज्जवसिअं-अनादि अपर्यवसित है। ___भावओ णं-भाव से, जे-जो, जिणपण्णत्ता भावा-जिन-सर्वज्ञ द्वारा प्ररूपित भाव पदार्थ, जया-जिस समय, आघविजंति-सामान्य रूप से कहे जाते हैं, पण्णविजंति-नाम आदि भेद दिखलाने से जो कथन किए जाते हैं, निदंसिज्जंति-हेतु-दृष्टान्त के उपदर्शन से स्पष्टतर किए जाते हैं, उवदंसिजंति-उपनय और निगमन से जो स्थापित किए जाते हैं, तया-तब, ते भावे पडुच्च-उन भावों पदार्थों की अपेक्षा से, साइयं सपज्जवसिअं-सादि सपर्यवसित है, पुण-और, खओवसमिअंभावं पडुच्च-क्षयोपशम भावों की अपेक्षा, अणाइअं अपज्जवसिअं-अनादि अपर्यवसित है।
अहवा-अथवा, भवसिद्धियस्स सुयं-भवसिद्धिक जीव का श्रुत, साइयं सपज्जवसिअं -सादि सपर्यवसित है, अभवसिद्धियस्स सुयं च-और अभवसिद्धिक जीव का श्रुत, अणाइयं अपज्जवसियंच-अनादि अपर्यवसित है, सव्वागासपएसगं-सर्वाकाश प्रदेशाग्र, सव्वागासपएसेहिं-सर्वाकाश प्रदेशों से, अणंतगुणियं-अनन्त गुणा करने से, पज्जवखर्रपर्याय अक्षर, निप्फज्जइ-उत्पन्न होता है, अ-और, सव्व जीवाणं पि-सब जीवों का ‘णं' वाक्यालंकरार्थ में, अक्खरस्स-अक्षर-श्रुतज्ञान का, अणंतभागो-अनन्तवां भाग, निच्चुग्घाडिओ-नित्य उद्घाटित, चिट्ठइ-रहता है, जइ पुण-यदि फिर, सोऽवि-वह भी, आवरिज्जा-आवरण को प्राप्त हो जाए, तेणं-तो उस से, जीवो अजीवत्तं-जीवआत्मा अजीव भाव को, पाविजा-प्राप्त हो जाए, मेहसमुदए-मेघ का समुदाय, सुठुविअत्यधिक होने पर भी, चंदसूराणं-चन्द्र-सूर्य की, पभा-प्रभा, होइ-होती ही है। से त्तं साइअंसपज्जवसिअं-इस प्रकार यह सादि सपर्यवसित और, अणाइयं अपज्जवसिअं-अनादि अपर्यवसितश्रुत का विवरण सम्पूर्ण हुआ।
भावार्थ-शिष्य ने प्रश्न किया-भगवन्! वह सादि सपर्यवसित और अनादि अपर्यवसितश्रुत किस प्रकार है? अचार्य उत्तर में कहने लगे-भद्र! यह द्वादशांग रूप गणिपिटक (सेठ के रत्नों के
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