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________________ टीका-इस सूत्र में सम्यक् श्रुत का विश्लेषण किया गया है। इसमें हमें अनेक महत्त्वपूर्ण संकेत मिलते हैं। वे ही संकेत आगे चलकर प्रश्न का रूप धारण कर लेते हैं। जैसे कि सम्यक् श्रुत के प्रणेता कौन हो सकते हैं? सम्यक् श्रुत किस को कहते हैं? गणिपिटक का क्या अर्थ है? आप्त किसे कहते हैं? इस सब का उत्तर विवेचन क्रमशः दिया जाता है। सम्यक् - श्रुत के प्रणेता देवाधिदेव अरिहन्त भगवान् हैं। अरिहन्त शब्द गुणवाचक है, न कि व्यक्तिवाचक। यदि किसी का नाम अरिहन्त है तो उसका नामनिक्षेप यहां अभिप्रेत नहीं है। यहां अरिहन्त के चित्र या प्रतिमा आदि स्थापना निक्षेप से भी प्रयोजन नहीं है। भविष्य जिस जीव ने अरिहन्त पद प्राप्त करना है या जिन अरिहन्तों ने शरीर का परित्याग कर सिद्ध पद प्राप्त कर लिया है, ऐसे परित्यक्त शरीर जो कि द्रव्य निक्षेप के अन्तर्गत हैं, वे भी सम्यक् - श्रुत के प्रणेता नहीं हो सकते। अतः जो भावनिक्षेप से अरिहन्त हैं, वे ही सम्यक् श्रुत. के प्रणेता होते हैं। भाव अरिहन्त कौन होते हैं? इसे सिद्ध करने के लिए सूत्रकार ने सात विशेषण दिए हैं, जैसे कि १. अरिहन्तेहिं- जिन्होंने राग-द्वेष, काम, क्रोध, मद, लोभ, मोह, माया, मल-आवरण, विक्षेप और घनघाति कर्मों की सत्ता ही निर्मूल कर दी है, ऐसे उत्तम पुरुष जीवन्मुक्त भाव अरिहन्त कहलाते हैं, जो इन्सान से साकार - भगवान् बन गए हैं, उन्हें दूसरे शब्दों में भाव तीर्थंकर भी कहते हैं। २. भगवन्तेहिं-भगवान् शब्द, साहित्य में बहुत ही उच्चकोटि का है अर्थात् जिस महान् आत्मा में सम्पूर्ण ऐश्वर्य, निःसीम उत्साह - शक्ति, त्रिलोक व्यापी - यश, सम्पूर्ण श्री-रूपसौन्दर्य, सोलह कलापूर्ण - धर्म, उद्देश्यपूर्ति के लिए किया जाने वाली अनथक परिश्रम, ये सब पाए जाएं, उसे भगवान् कहते हैं। भगवन्त शब्द सिद्धों के लिए भी प्रयुक्त होता है तो क्या वे भी सम्यक् श्रुत के प्रणेता हो सकते हैं? इस शंका का निराकरण इस प्रकार किया. जाता है- अनादि सिद्धों के रूपमात्र का सर्वथा अभाव है, अशरीरी होने से उनमें समग्ररूप कहां ? शरीर की निष्पत्ति रागादि से होती है, अतिशायी रूप एवं सौन्दर्य सशरीरी में ही हो सकता है, अशरीरी में नहीं । सम्पूर्ण प्रयत्न भी सशरीरी ही कर सकता है, अशरीरी नही । अतः सिद्ध हुआ कि सिद्ध भगवान् श्रुत के प्रणेता नहीं हैं और भगवान् शब्द का उचित प्रयोग यहां अरिहन्तों के लिए ही किया गया है। ३. उप्पण्ण-नाणदंसणधरेहिं - उत्पन्न ज्ञानदर्शन के धारण करने वाले । ज्ञान दर्शन तो अध्ययन और अभ्यास से भी हो सकता है। अतः यहां उत्पन्न विशेषण जोड़ा है। यहां शंका हो सकती है जो तीसरा विशेषण है, वही पर्याप्त है, अरिहन्त - भगवान् ये दो विशेषण क्यों जोड़े हैं ? इसका उत्तर यह है कि तीसरा विशेषण सामान्य केवली में भी पाया जाता है, वे सम्यक्-श्रुत के प्रणेता नहीं होते। अतः यह विशेषण पहले दोनों पदों की पुष्टि करता है। जो एक तथा अनादि विशुद्ध परमेश्वर है, उसमें यह विशेषण घटित नहीं होता, वह ज्ञान - दर्शन 404❖
SR No.002205
Book TitleNandi Sutram
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAtmaramji Maharaj, Shiv Muni
PublisherBhagwan Mahavir Meditation and Research Center
Publication Year2004
Total Pages546
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_nandisutra
File Size12 MB
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