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है, तब वह अनुभव और चेष्टा आदि श्रुतज्ञान कहलाता है। उक्त दोनों ज्ञान सहचारी हैं। एक समय में दोनों में से एक ओर ही उपयोग लग सकता है, दोनों में युगपत् नहीं, जीव का ऐसा ही स्वभाव है।
अनक्षर श्रुत-जो शब्द अभिप्रायपूर्वक व वर्णात्मक नहीं बल्कि ध्वन्यात्मक किया जाता है, उसे अनक्षर श्रुत कहते हैं। जब कोई किसी विशेष बात को समझाने के लिए इच्छापूर्वक किसी के प्रति अनक्षर शब्द करता है, तब अनक्षर श्रुत कहलाता है, अन्यथा नहीं। उच्छ्वसितं निःश्वसितं लंबे-लंबे श्वास लेना और छोड़ना। निष्ठयूतं-थूकना। कासितं-खांसना। क्षुत-छींकना। निःसिङ्कितं-नासिका से शब्द करना। श्लेष्मितं-कफ निकालने का शब्द करना, अनुस्वारं-हुंकार करना, इसी प्रकार उपलक्षण से सीटी बजाना, घंटी बजाना, नगारा बजाना, भोंपू बजाना, बिगुल बजाना, अलार्म करना आदि शब्द यदि बुद्धिपूर्वक दूसरों को सूचित करने के लिए, हित-अहित जताने के लिए, सावधान करने के लिए, प्रेम, द्वेष, भय जतलाने के लिए अपने आने की सूचना देने के लिए, ड्यूटी पर पहुंचने के लिए, मार्गप्रदर्शन के लिए, रोकने के लिए अन्य जो भी शब्द किसी संकेत के लिए नियत किया हुआ है वैसा शब्द करना, ये सब अनक्षर श्रुत है। यदि बिना ही प्रयोजन के शब्द किया जाता है, तो उसका अन्तर्भाव अनक्षर श्रुत में नहीं होता। उक्त कारणों को, भावश्रुत का कारण होने से द्रव्यश्रुत कहा जाता है। जैसे कि वृत्तिकार ने लिखा है
. "तथाहि यदाभिसन्धिपूर्वकं सविशेषतरमुच्छ्वसितादिकस्यापि पुंसः कस्यचिदर्थस्य ज्ञप्तये प्रयुङ्क्ते, तदा तदुच्छ्वसितादिप्रयोक्तु वश्रुतस्य फलं, श्रोतुश्च भावश्रुतस्य कारणं भवति, ततो द्रव्यश्रुतमित्युच्यते।"
चूर्णिकार के एतद् विषयक शब्द निम्नलिखित हैं, जैसे कि
“से किं तं सुयणाणं इत्यादि-तं च सुयावरणखओवसमत्तणतो एगविधं पि तं अक्खरादिभावे पडुच्च अंगबाहिरादिचोद्दसविहं भण्णइ, तत्थ अक्खरं तिविहं, तं नाणक्खरं, अभिलावक्खरं वण्णक्खरं च, तत्थ नाणक्खरं-खर् संचरणे, न क्षरतीत्यक्षरं न प्रच्यवतेऽनुपयोगेऽपीत्यर्थः, अभिलावणतो तं च नाणं से सतो चेतनेत्यर्थः, आह एवं सव्वमपि सेसं तो नाणक्खरं, कम्हा सुतं अक्खरमिति भण्णइ? उच्यते रूढिविसेसतो, अभिलावणा अक्खरं भणितो, पंकजवत् एवं ताव अभिलावहेतुत्तणतो सुतविण्णाणस्स अक्खरया भणिया। इयाणिं वण्णक्खरं वणिज्जइ-अणेणाभिघिता अत्था इति वाऽत्थस्स वा वाच्यं चित्रे वर्णकवत्, अहवा द्रव्ये गुणविशेष वर्णकवत् वर्ण्यतेऽभिलाप्यते तेन वण्णक्खरं॥"..
इस उद्धरण का आशय यह है कि श्रुतावरण के क्षयोपशम से एकविध होने पर भी अक्षरादि भाव से श्रुतज्ञान चौदह प्रकार से वर्णन किया गया है। ज्ञानाक्षर, अभिलापाक्षर और वर्णाक्षर इस प्रकार अक्षर श्रुत तीन भेदों सहित वर्णन किया गया, जिनकी व्याख्या पहले लिखी जा चुकी है ।। सूत्र 39 ।।
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