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________________ 1. शब्द सुन कर या भाषा सुन कर - यह जीवशब्द है, यह अजीवशब्द है, यह मिश्रशब्द है, दूसरों के अभिप्राय को समझ लेना यह व्यक्ति हित से कह रहा है या अहित से, अभिधावृत्ति से कह रहा है, लक्षणा से, या व्यंजनावृत्ति से, तथा हिनहिनाने से, रेंकने से, अरडाने से, गर्जना से शब्द सुन कर तिर्यंचों के भावों को समझ लेना श्रोत्रेन्द्रिय लब्ध्यक्षर है। 2. पत्र, विज्ञापन, वृत्तपत्र, पुस्तक आदि पढ़कर संकेत, इशारे से दूसरे के अभिप्राय को यथातथ्य समझ लेना चक्षुरिन्द्रिय-लब्ध्यक्षर कहलाता है, क्योंकि देखकर उसके जवाब के लिए तथा उसकी प्राप्ति के लिए और उसे हटाने के लिए जो भाव पैदा होते हैं, वे अक्षर रूप होते हैं। 3. सूंघ कर जान लेना-यह अमुक जाति के फूल की एवं फल की गन्ध है, यह अमुक वस्तु की गन्ध है । अमुक स्त्री, पुरुष, पशु, पक्षी की गन्ध है । यह अमुक भक्ष्य तथा अभक्ष्य गन्ध है । ऐसा समझना अक्षर रूप है। उस वस्तु के अक्षर रूप ज्ञान को घ्राणेन्द्रिय लब्ध्यक्षर कहते हैं। 4. रस चखकर जान लेना कि यह अमुक पदार्थ है, इस प्रकार जो ज्ञान अक्षर रूप में परिणत हो जाए, उसे जिह्वेन्द्रिय लब्ध्यक्षर कहते हैं। क्योंकि वह ज्ञान रसजन्य हो जाने से ऐसा कहा जाता है। जिस अक्षर का जो भी कारण है, जिस कारण से कार्यरूप अक्षर ज्ञान हुआ है, उसको उसी इंद्रिय से सूत्रकार ने सम्बन्धित किया है। 5. स्पर्श से, प्रज्ञाचक्षु या चक्षुष्मान भी गाढ अन्धकार में अक्षर पढ़ कर सुनाते हैं। स्पर्श से, यह क्या वस्तु है, शीत है, उष्ण है, हल्का है, भारी है, रूक्ष है, स्निग्ध है, कर्कश है, या सुकोमल है, इन्हें जीव जानता भी है, और इनका उत्तर भी दिया जाता है। स्पर्श से यह जान लेना कि यह वस्तु भक्ष्य है या अभक्ष्य, इसको भली-भांति जान लेता है। एकेन्द्रियों को स्पर्शन इन्द्रिय से श्रुतसम्बन्धत अक्षर ज्ञान होता है। 6. जिस वस्तु का जीव चिन्तन करता है, उसकी अक्षर रूप में वाक्यावली बन जाती है, जैसे कि यदि "अमुक वस्तु मुझे मिल जाए, तो मैं अपने आप को धन्य या पुण्यशाली समझंगा, " यह मनोजन्य लब्धि अक्षर है। अब यहां प्रश्न पैदा होता है कि पांच इन्द्रियों तथा मन से मतिज्ञान भी पैदा होता है और श्रुतज्ञान भी, जब उन 6 निमित्तों में से किसी भी निमित्त से ज्ञान हो सकता है, तब उत्पन्न हुए ज्ञान को मतिज्ञान कहें या श्रुत ? इसके उत्तर में कहा जाता है, जब ज्ञान अक्षर रूप में हो, तब श्रुत होता है अर्थात् मतिज्ञान कारण है जब कि श्रुतज्ञान कार्य है, मतिज्ञान सामान्य है जब कि श्रुतज्ञान विशेष है। मतिज्ञान मूक है जब कि श्रुतज्ञान मुखर है । मतिज्ञान अनक्षर है जबकि श्रुतज्ञान अक्षर-परिणत है। जब छहों साधनों से आत्मा को स्वानुभूति रूप ज्ञान होता है, तब मतिज्ञान, जब वह ज्ञान अक्षर रूप में अनुभव करता है या दूसरे को अपना अभिप्राय किसी भी चेष्टा के द्वारा जताता ❖ 396❖
SR No.002205
Book TitleNandi Sutram
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAtmaramji Maharaj, Shiv Muni
PublisherBhagwan Mahavir Meditation and Research Center
Publication Year2004
Total Pages546
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_nandisutra
File Size12 MB
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