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__यदा पुनरालोकस्य मन्द-मन्दतर-मंदतम-स्पष्ट-स्पष्टतर-स्पष्टतमत्वादिभेदतो विषयस्याल्पत्वमहत्त्वसन्निकर्षादिभेदतः क्षयोपशमस्य च तारतम्यभेदतो भिद्यमानं मतिज्ञानं चिन्त्यते तदा तदनन्तभेदं प्रतिपत्तव्यम्।"
इस वृत्ति का भाव यह है कि मतिज्ञान के अवग्रह आदि 28 भेद होते हैं। प्रत्येक भेद को द्वादश भेदों में सम्मिलित करने से सर्व भेद 336 होते हैं। पांच इन्द्रियां और मन इन 6 निमित्तों से होने वाले मतिज्ञान के अवग्रह, ईहा, अवाय आदि रूप से 24 भेद होते हैं। वे सब विषय की विविधता और क्षयोपशम से 12-12 प्रकार के होते हैं, जैसे किबहुग्राही
6 अवग्रह | 6 ईहा 6 अवाय 6 धारणा अल्पग्राही । बहुविधग्राही एकविधग्राही क्षिप्रग्राही अक्षिप्रग्राही अनिश्रितग्राही निश्रितग्राही असंदिग्धग्राही संदिग्धग्राही ध्रुवग्राही अध्रुवग्राही
१. बहु-इसका अर्थ अनेक से है, यह संख्या और परिमाण दोनों की अपेक्षा से हो सकता है। वस्तु की अनेक पर्यायों को तथा बहुत परिमाण वाले द्रव्य को जानना या किसी बहुत बड़े परिमाण वाले विषय को जानना।
२. अल्प-किसी एक ही विषय को, या एक ही पर्याय को स्वल्पमात्रा में जानना।
३. बहुविध-किसी एक द्रव्य को, या एक ही वस्तु को, या एक ही विषय को बहुत प्रकार से जानना, जैसे वस्तु का आकार, रंग-रूप, लंबाई-चौड़ाई, मोटाई, उस की अवधि इत्यादि अनेक प्रकार से जानना। .... ४. अल्पविध-किसी भी वस्तु को या पर्याय को जाति या संख्या आदि को अत्यल्प प्रकार से जानना, अधिक भेदों सहित न जानना।
५. क्षिप्र-किसी वक्ता के या लेखक के भावों को यथाशीघ्र किसी भी इन्द्रिय या मन के द्वारा जान लेना। स्पर्शनोन्द्रिय के द्वारा अन्धकार में भी व्यक्ति या वस्तु को पहचान लेना। ६. अक्षिप्र-क्षयोपशम की मन्दता से या विक्षिप्त उपयोग से किसी भी इन्द्रिय या मन
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