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अंगड़ाई लेते हुए फिर भी शब्द पुद्गल टकराते ही रहते हैं, वहां तक अवग्रह ही रहता है। यह शब्द किसका है? मुझे किसने संबोधित किया ? कौन मुझे जगा रहा है ? यह अवग्रह में नहीं जानता। जब ईहा में प्रवेश करता है तब विचारसरणि से उस ग्रहण किए हुए शब्द की छानबीन करता है। ऊहापोह करने से जब निश्चय की कोटि में पहुंच जाता है, तब वह जानता है कि यह अमुक का शब्द है, उसे अवाय कहते हैं। जब उस सुने हुए शब्द को संख्यात एवं असंख्यात काल तक धारण करके रखता है, तब उसे धारणा कहते हैं। प्रतिबोधक और मल्लक (मिट्टी का प्याला) इन दोनों दृष्टान्तों का सम्बन्ध यहां केवल श्रोत्रेन्द्रिय से है। उपलक्षण से घ्राण-रसना और स्पर्शन का भी समझना चाहिए।
सूत्र में उवगयं पद आया है, इसका सारांश यह है कि जिस ज्ञान से आत्मा पहले अपरिचित था, वह ज्ञान आत्मपरिणत हो गया है “उपगतं भवति सामीप्येनात्मनि शब्दादिज्ञानं परिणतं भवति।" पहले और इस दृष्टान्त में जो श्रोत्रेन्द्रिय और शब्द का सूत्र में उल्लेख किया गया है, वह श्रुतनिश्रित मतिज्ञान से सम्बन्धित है, क्योंकि अन्य इन्द्रियों की अपेक्षा श्रुतज्ञान का निकटतम सम्बन्ध श्रोत्रेन्द्रिय से है। आत्मोत्थान और कल्याण में मुख्यतया श्रुतज्ञान की प्रधानता है। अत: यहां श्रोत्रेन्द्रिय और शब्द के योग से व्यंजनावग्रह और अर्थावग्रह का उल्लेख किया गया है। . ..
अवग्रह आदि के छ: उदाहरण मूलम् से जहानामए केइ पुरिसे अव्वत्तं सदं सणिज्जा, तेणं 'सद्दो' त्ति उग्गहिए, नो चेव णं जाणइ, 'के वेस सद्दाइ'? तओ ईहं पविसइ, तओ जाणइ 'अमुगे एस सद्दे।' तओ णं अवायं पविसइ, तओ से अवगयं हवइ, तओ धारणं पविसइ, तओ णं धारेइ संखिज्जं वा कालं, असंखिज्जं वा काली .. से जहानामए केइ पुरिसे अव्वत्तं रूवं पासिज्जा, तेणं 'रूवं' ति उग्गहिए, नो चेव णं जाणइ 'के वेस रूवं' त्ति ? तओ ईहं पविसइ, तओ जाणइ 'अमुगे एस रूवे त्ति। तओ अवायं पविसइ, तओ से उवगयं भवइ, तओ धारणं पविसइ, तओ णं धारेइ संखेज्जं वा कालं, असंखिज्जं वा कालं।
से जहानामए केइ पुरिसे अव्वत्तं गंधो अग्घाइज्जा, तेणं 'गंधो' त्ति उग्गहिए, नो चेव णं जाणइ 'के वेस गंधो' त्ति ? तओ ईहं पविसइ, तओ जाणइ 'अमुगे एस गंधे।' तओ अवायं पविसइ, तओ से उवगयं हवइ, तओ धारणं पविसइ, तओ णं धारेइ संखेज्जं वा कालं, असंखेज्जं वा कालं।
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