SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 381
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ मिति भणियं विण्णाणं अव्वत्तमिति।" इस का भाव ऊपर स्पष्ट हो चुका है। असंख्यात समय के प्रविष्ट हुए शब्द-पुद्गल ही ज्ञान के उत्पादक होते हैं। व्यंजनावग्रह का कालमान जघन्य आवलिका के असंख्येय भाग मात्र होता है और उत्कुष्ट संख्येय आविलका प्रमाण होता है, वह भी पृथक्त्व आणापाणू प्रमाण जानना चाहिए, जैसे कि कहा भी है “वंजणोवग्गहकालो, आवलियाऽसंखभागतुल्लो उ। थोवा उक्कोसा पुण, आणापाणू पुहुत्तं ति ॥" इस सूत्र में शिष्य के लिए चोयग शब्द का प्रयोग किया है, क्योंकि वह अपने किए हुए प्रश्न के उत्तर के लिए प्रेरक है और प्रज्ञापक पद गुरु का वाचक है। वह यथावस्थित सूत्र और अर्थ का प्रतिपादक होने से प्रज्ञापक कहलाता है। ___ मल्लक के दृष्टान्त से व्यंजनावग्रह मूलम्-से किं तं मल्लगदिट्ठतेणं ? मल्लगदिट्ठतेणं, से जहानामए केइ परिसे आवागसीसाओ मल्लगं गहाय तत्थेगं उदगबिंदं पक्खिविज्जा, से नछे, अण्णेऽवि पक्खित्ते सेऽवि नढे, एवं पक्खिप्पमाणेसु २ होही से उदगबिंदू जेणं तं मल्लगंरावेहिइत्ति, होही से उदगबिंदू जेणं तंसि मल्लगंसि ठाहिइ, होही से उदगबिंदू जेणं तं मल्लगं भरिहिइ, होही से उदगबिंदू जेणं तं मल्लगं पवाहेहिए। ___ एवामेव पक्खिप्पमाणेहिं २ अणंतेहिं पुग्गलेहिं जाहे तं वंजणं पूरिअं होइ, ताहे ‘हुँ' ति करेइ, नो चेव णं जाणइ केवि एस सद्दाइ ? तओ ईहं पविसइ, तओ जाणइ अमुगे एस सद्दाइ, तओ अवायं पविसइ, तओ से उवगयं हवइ, तओ णं धारणं पविसइ, तओ णं धारेइ संखिज्जं वा कालं, असंखिज्जं वा कालं। छाया-अथ किं तत् ( प्ररूपणं) मल्लकदृष्टान्तेन? मल्लकदृष्टान्तेन, यथानामकः कश्चित्पुरुषः आपाकशीर्षतो मल्लकं गुहीत्वा तत्रैकमुदकबिन्दुप्रक्षिपेत्स नष्टः, अन्योऽपि प्रक्षिप्तः, सोऽपि नष्टः, एवं प्रक्षिप्यमाणेषु २ भविष्यति स उदकबिन्दुर्यस्तं मल्लक रावेहिति-आर्द्रयिष्यति, भविष्यति स उदकबिन्दुर्यस्तं मल्लकं भरिष्यति, भविष्यति स उदकबिन्दुर्यस्तं मल्लकं प्रवाहयिष्यति। 1. पृथक्त्व शब्द 2 से लेकर 9 तक की संख्या के लिए रूढ है। 2. स्वस्थ व्यक्ति की नब्ज (नाड़ी) के एक बार हरकत करने मात्र काल को आणापाणू कहते हैं। एक बार हरकत हुई तो एक आणापाणू और नौ बार हरकत हुई तो नौ आणापाणू हुए। *372* -
SR No.002205
Book TitleNandi Sutram
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAtmaramji Maharaj, Shiv Muni
PublisherBhagwan Mahavir Meditation and Research Center
Publication Year2004
Total Pages546
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_nandisutra
File Size12 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy