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________________ जाती है, उसे अवग्रहणता कहते हैं। २. उपधारणता-व्यंजनावग्रह के शेष समयों में नवीन-नवीन ऐन्द्रियक पुद्गलों का प्रति समय ग्रहण करना और पूर्व गृहीत का धारण करना, इसे उपधारणता कहते हैं। क्योंकि यह ज्ञान व्यापार को आगे-आगे के समयों के साथ जोड़ता रहता है, अव्यक्त से व्यक्ताभिमुख हो जाने वालें अवग्रह को उपधारणता कहते हैं। ३. श्रवणता-जो अवग्रह श्रोत्रेन्द्रिय द्वारा हो, उसे श्रवणता कहते हैं। एक समय में होने वाले सामान्य अर्थावग्रह बोधरूप परिणाम को श्रवणता कहते हैं, इस का सीधा सम्बन्ध श्रोत्रेन्द्रिय से है। - ४. अवलम्बनता-अर्थ का ग्रहण करना ही अवलंबनता है, क्योंकि जो अवग्रह सामान्य ज्ञान से विशेषाभिमुख तथा उत्तरवर्ती ईहा, अवाय और धारणा तक पहुंचने वाला हो, उसे अवलम्बनता कहते हैं। . ५. मेधा-यह सामान्य और विशेष दोनों को ही ग्रहण करती है। पहले दो भेद व्यंजनावग्रह से सम्बन्धित हैं। तीसरा केवल श्रोत्रेन्द्रिय के अवग्रह से सम्बन्धित है। चौथा और पांचवां अर्थावग्रह नियमेन ईहा, अवाय और धारणा तक पहुंचने वाले हैं। कुछ ज्ञानधारा सिर्फ अवग्रह तक ही रह जाती है और कुछ आगे बढ़ने वाली होती है। एगट्ठिया-इस पद का भाव है, यद्यपि अवग्रह के पांच नाम वर्णित किए हैं, तदपि ये पांच नाम शब्दनय की दृष्टि से एकार्थक समझने चाहिएं। समभिरूढ और एवंभूत नय की दृष्टि से नहीं, क्योंकि उन पांचों के अर्थ भिन्न-भिन्न करते हैं। नाणा खोसा-जो उक्त पांच पर्यायान्तर नाम अवग्रह के बताए हैं, उनका उच्चारण भिन्न-भिन्न है,-एक जैसा नहीं। - नाणा वंजणा-इस पद से यह सिद्ध होता है कि ऊपर जो पांच नाम अवग्रह के बताए हैं, उन में स्वर और.व्यंजन भिन्न-भिन्न हैं। इस से यह भी सूचित होता है कि स्वर और व्यंजन से शब्द शास्त्र बनता है और साथ ही शब्द कोष का भी संकेत मिलता है। शब्द कोष में एकार्थिक अनेक शब्द मिलते हैं। इन पांचों में से कोई एक शब्द यदि किसी शास्त्र में श्रुतनिश्रित मति ज्ञान के प्रसंग में मिल जाए, तो उस का अर्थ-अवग्रह समझना चाहिए। जो-जो शब्द अवग्रह को सूचित करते हैं, उन का नाम निर्देश सूत्रकार ने स्वयं किया है, जिस से अध्येता को सुविधा रहे ।। सूत्र 31 ।। २. ईहा - मूलम्-से किं तं ईहा ? ईहा छव्विहा पण्णत्ता, तं जहा-१. सोइंदियईहा, २. चक्खिदिय-ईहा, ३. घाणिंदिय-ईहा, ४. जिभिंदिय-ईहा, ५. * 363 *
SR No.002205
Book TitleNandi Sutram
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAtmaramji Maharaj, Shiv Muni
PublisherBhagwan Mahavir Meditation and Research Center
Publication Year2004
Total Pages546
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_nandisutra
File Size12 MB
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