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राजा ने मन्त्री की ओर देखा। मन्त्री ने कहा-"सुभाषित हैं।" ऐसा कहने पर राजा ने पंडित जी को एक सौ आठ सुवर्ण मुद्राएं दीं और वह हर्षित होता हुआ अपने घर वापिस आ गया। वररुचि के चले जाने पर मन्त्री ने राजा से पूछा-"आज आप ने मोहरें क्यों दी?" राजा ने कहा-"वह प्रतिदिन नवीन श्लोक बना कर लाता है, और आज तुमने उसकी प्रशंसा की, इस कारण उसे पारितोषिक रूप में मैंने मोहरें दे दीं।" शकटार ने राजा से कहा-"महाराज ! वह तो लोक में प्रचलित पुराने ही श्लोकों को सुना देता है। राजा ने पूछा-"यह तुम कैसे कहते हो ?" मन्त्री बोला-"मैं सत्य कहता हूं, जो श्लोक वररुचि सुनाता है, वे तो मेरी कन्याएं भी जानती हैं। यदि आप को विश्वास न हो तो कल ही वररुचि द्वारा सुनाये गये श्लोकों को मेरी कन्याएं आप को सुना देंगी। "राजा ने यह बात स्वीकार कर ली। अगले दिन अपनी कन्याओं को साथ लेकर मन्त्री राजसभा में आया और उसने अपनी कन्याओं को पर्दे के पीछे बैठा दिया। तत्पश्चात् वररुचि राजसभा में आया और एक सौ आठ श्लोक पढ़ कर सुनाए। उसके बाद शकटार की बड़ी कन्या सामने आई और उसने वररुचि के सुनाए हुए श्लोक ज्यों के त्यों सुना दिये। यह देख राजा वररुचि पर क्रुद्ध हुआ और उसे राजसभा से निकलवा दिया। __ वररुचि इससे बहुत खिन्न हुआ और शकटार को अपमानित करने का निर्णय किया। वह लकड़ी का एक लम्बा तख्ता ले कर गंगा के किनारे गया। उसने लकड़ी का एक किनारा जल में डाल दिया और दूसरा बाहर रखा। रात को उसने थैली में एक सौ आठ मोहरें डालीं
और गंगा के किनारे जाकर जलमग्न भाग पर थैली को स्ख दिया। प्रात:काल होने पर वह सखे भाग पर बैठ गया और गंगा की स्तति करने लगा। जब स्तति पर्ण हो चकी तो तख्ते को दबाया, जिससे थैली बाहर आ गई। थैली दिखाते हुए उसने लोगों से कहा-"यदि राजा मुझे इनाम नहीं देता तो क्या हुआ, गंगा तो मुझे प्रसन्न होकर देती है।" ऐसा कहता हुआ वहा वहां से चला गया। लोग वररुचि के इस कार्य को देख कर आश्चर्य करने लगे। जब शकटार को यह ज्ञात हुआ तो उसने खोज करके रहस्य को जान लिया।
जनता वररुचि के इस कार्य को देख कर उसकी प्रशंसा करने लगी और धीरे-धीरे यह बात राजा तक जा पहुंची। राजा ने शकटार से पूछा, तो मन्त्री बोला-"देव ! यह सब वररुचि का ढोंग है, इससे वह लोगों को भ्रम में डालता है। सुनी-सुनाई बात पर एकदम विश्वास नहीं करना चाहिये।" राजा ने कहा, ठीक है, कल हमें स्वयं गंगा के किनारे जा कर देखना चाहिये। मन्त्री ने इस बात को स्वीकार कर लिया।
घर आकर मंत्री ने अपने विश्वस्त सेवक को बुलाया और कहा, आज रात गंगा के किनारे छिप कर बैठे रहो। रात को वररुचि मोहरों की थैली रख कर जब चला जाये तो तुम वह उठा कर मेरे पास ले आना। सेवक ने वैसा ही किया। वह गंगा के किनारे छिप कर बैठ गया। आधी रात को वररुचि आया और पानी में मोहरों की थैली रख गया। नौकर वररुचि के जाने के पीछे वहां से थैली उठा लाया और मन्त्री को सौंप दी। प्रात:काल वररुचि आया
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