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समचार महाराज श्रेणिक को मिला और वह अपने अन्तःपुर के साथ भगवान के दर्शनार्थ गया। नन्दिषेण ने भी इस समाचार को सुना और वह भी अपनी पत्नियों सहित दर्शनों को गया । उपस्थित जनता को भगवान ने धर्मोपदेश दिया । उपदेश सुनने पर नन्दिषेण को वैराग्य हो गया, वह घर वापिस गया और माता-पिता से आज्ञा लेकर संयम धारण कर लिया। कुशाग्रबुद्धि होने से उसने थोड़े ही समय में अंगोपांग शास्त्रों का गहन अध्ययन किया । पश्चात् वे उपदेश देने लगे और बहुत सी भव्यात्माओं को प्रतिबोध देकर दीक्षित किया। फिर भगवान् की आज्ञा से अपने शिष्यों सहित राजगृह से बाहर विहार कर गये।
ग्रामानुग्राम विचरण करते समय मुनि नन्दिषेण के किसी शिष्य के मन में संयमवृत्ति के प्रति अरुचि पैदा हो गयी और वह संयम को छोड़ देने का विचार करने लगा। शिष्य की संयम के प्रति अरुचि जान कर श्री नन्दिषेण ने उसे पुनः संयम में स्थिर करने का विचार. किया और राजगृह की ओर विहार कर दिया।
मुनि नन्दिषेण के राजगृह पधारने के समाचार सुन कर महाराजा श्रेणिक अपने अन्तःपुर और नन्दिषेण कुमार की धर्मपत्नियों को साथ लेकर उनके दर्शन करने गया । स्त्रियों के अनुपम रूप-यौवन को देख कर वह चंचलचित्त मुनि सोचने लगा- "मेरे गुरुवर्य धन्य हैं, जो देव कन्याओं के सदृश्य अपनी पत्नियों और राजसी ठाठ तथा वैभव को छोड़ कर सम्यक्तया, संयम की आराधना कर रहे हैं। और मुझे धिक्कार है जो वमन किये विषय-भोगों का परित्या कर के पुनः असंयम की ओर प्रवृत्त हो रहा हूं।" ऐसा विचारते ही मुनि पुन: संयम में दृढ़ हो गये। यह नन्दिषेण की पारिणामिकी बुद्धि है कि गिरते हुए मुनि को धर्म में स्थिर करने के लिये नगर में आए। नन्दिषेण के अन्तःपुर को देख कर शिष्य धर्ममार्ग में स्थिर हो गया।
७. धनदत्त- पाठक इस का वर्णन श्रीज्ञाताधर्मकथांग सूत्र के अट्ठारहवें अध्ययन में विशेषरूप से पढ़ सकते हैं।
८. श्रावक - एक गृहस्थ ने स्वदार-सन्तोष व्रत ग्रहण किया हुआ था। किसी समय उसने अपनी पत्नी की सखी को देखा और उसके सौन्दर्य को देख कर उस पर आसक्त हो गया। आसक्ति के कारण वह हर समय चिन्तित रहने लगा । लज्जा वश वह अपनी भावना किसी प्रकार भी प्रकट नहीं करता था। जब वह चिन्ता और मोहनीय कर्म के कारण दुर्बल होने लगा तो उसकी स्त्री ने आग्रह पूर्वक पति से पूछा, तब उसने यथावस्थित कह दिया ।
श्रावक की वार्ता सुन कर स्त्री ने विचारा कि इन का स्वदार - सन्तोष व्रत ग्रहण किया हुआ है, फिर भी मोह से ऐसी दुर्भावना उत्पन्न हो गयी है। यदि इस प्रकार कलुषित विचारों में इनकी मृत्यु हो जाये तो दुर्गति अवश्यंभावी है। अतः पति के कुविचार हट जाएं और व्रत भी भंग न हो, ऐसा उपाय सोचने लगी। विचार कर पति से कहने लगी- "स्वामिन् ! आप निश्चित रहें, मैं आप की भावना को पूरा कर दूंगी। वह तो मेरा सहेली है, मेरी बात को वह टाल नहीं सकती और आज ही आपकी सेवा में उपस्थित हो जायेगी। यह कहकर वह अपनी सखी के पास गयी और उससे वही वस्त्राभूषण ले आयी जिनसे आभूषित उसके पति ने देखी
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