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को घर वापिस आ जाएं।" ऐसा आदेश पाकर, स्त्री ने थोड़े रागवाले पति को पूर्ववर्ती ग्राम और साथ अधिक स्नेह था उसे पश्चिम की ओर के ग्राम में भेजा । जिसको पूर्व दिशा में भेजा, उसे जाते समय और लौटते समय दोनों बार सूर्य का ताप सामने रहा। परन्तु जिसे पश्चिम में भेजा, उसे दोनों समय पीठ की ओर सूर्य रहा । ऐसा करने पर मन्त्री ने जाना कि "अमुक से थोड़ा और अमुक से अधिक अनुराग है।" यह निर्णय करके मन्त्री ने राजा से निवेदन कर दिया। परन्तु राजा ने यह स्वीकार नहीं किया। क्योंकि दोनों को ही पूर्व व पश्चिम में जाने की आवश्यकीय आज्ञा थी। इससे विशेषता ज्ञात नहीं होती ।
मन्त्री ने पुनः लेख द्वारा स्त्री को आज्ञा भेजी कि अपने पतियों को एक ही समय दो ग्रामों में भेजे। स्त्री ने फिर उसी प्रकार दोनों को समकाल ही ग्रामों में भेज दिया। उधर मन्त्री ने दो व्यक्ति एक साथ स्त्री के पास भेजे और उन्होंने समकाल ही जा कर कहा कि " आप के पतियों के शरीर में अमुक कष्ट हो गया है, उनकी सार सम्भाल करो। " तब जिसके साथ स्नेह थोड़ा था, उसकी बात को सुनकर उस स्त्री ने कहा कि "यह तो हमेशा ऐसे ही रहता है । " दूसरा जिसके प्रति अधिक स्नेह था, उसके लिए कहने लगी- "उन्हें अधिक कष्ट हो रहा होगा। अत: मैं पहले उनकी ओर ही जाती हूं।" ऐसा कह कर पश्चिम की ओर गये हुए पति के पास पहले चल दी। यह सारी वार्ता मन्त्री ने राजा से निवेदित की। मन्त्री की बुद्धिमत्ता राजा अत्यन्त प्रसन्न हुआ। यह मन्त्री की औत्पत्तिकी बुद्धि का उदाहरण है।
१७. पुत्र - किसी नगर में एक व्यापारी रहा करता था। उसकी दो पत्नियां थीं, एक के पुत्र उत्पन्न हुआ, और दूसरी वन्ध्या थी । परन्तु वन्ध्या स्त्री भी उस बच्चे की अच्छी प्रकार 'से देख-भाल करती और उससे प्यार करती । इस कारण वह बच्चा यह नहीं समझ पाता था, कि मेरी माता कौन-सी है। एक बार वह व्यापारी अपनी स्त्रियों और पुत्र के साथ देशान्तर में चला गया। जाते ही व्यापारी की मृत्यु हो गई। तत्पश्चात् उन दोनों स्त्रियों का परस्पर झगड़ा खड़ा हो गया। एक कहती कि यह बच्चा मेरा है, अतः मैं ही घर-बार की स्वामिनी हूं।" दूसरी कहती है- "यह मेरा ही पुत्र है, अतः मैं ही घर की मालकिन हूं।" इस प्रकार दोनों का यह झगड़ा न्यायालय में पहुंच गया।
मन्त्री ने दोनों का वाद-विवाद सुन कर अपने कर्मचारियों को आज्ञा दी कि - " पहिले इन दोनों में घर की सम्पत्ति बांट दो और फिर इस लड़के को आरी से काट कर एक-एक भाग दोनों स्त्रियों को दे दिया जाये।" वज्र के समान मन्त्री के कठोर आदेश को सुन कर कम्पायमान और शल्य से बिन्धे हुए हृदय से पुत्र की जननी माता बड़ी कठिनता और दुःख से कहने लगी- "हाय स्वामिन् ! हे महामन्त्रिन् ! यह मेरा पुत्र नहीं है, न मुझे सम्पत्ति से ही कोई प्रयोजन है। घर की स्वामिनी यही स्त्री है और पुत्र भी इसी का है। मैं दूर से ही दरिद्र अवस्था में रह कर भी इसके घर जीवित पुत्र को देख कर निज को कृतकृत्य मानूंगी। लेकिन पुत्र के बिना यह सारा धन-वैभव और संसार मेरे लिए अन्धकार समान है। " परन्तु दूसरी स्त्री ने कुछ भी न कहा । मन्त्री ने उस स्त्री के ममत्व से जान लिया कि यही बच्चे की
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