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सेठ सोचने लगा कि रात्रि में जिस रत्नाकर के साथ अपनी कन्या के पाणिग्रहण का स्वप्न मैंने देखा था, यही वह रत्नाकर है, अन्य कोई नहीं। तब सेठ ने पास बैठे हुए श्रेणिक को हाथ जोड़ कर विनम्र प्रार्थना की-"आर्य महानुभाग ! आप किस घर में अतिथि बन कर आए हैं?" श्रेणिक ने प्रिय और कोमल शब्दों में उत्तर दिया-"श्रीमान् जी ! मैं आपका ही अतिथि हूं।" इस मनोज्ञ उत्तर को सुन कर सेठ का हृदय कमल खिल उठा और प्रसन्नता में विभोर बनकर, बहुमान पूर्वक उसे अपने घर ले गया और अच्छे से अच्छे वस्त्र और भोजन आदि से उस का सत्कार किया। श्रेणिक वहां पर आनन्द पूर्वक रहने लगा। उस के पुण्य से सेठ की धन-सम्पत्ति, व्यापार और प्रतिष्ठा दिनों-दिन बढ़ती चली गयी। श्रेणिक को इस प्रकार वहां रहते हुए कई दिन व्यतीत हो गये। सेठ ने अपनी कन्या नन्दा के योग्य वर देख कर शुभ दिन, तिथि, मुहूर्त, नक्षत्र आदि देखकर उसके साथ विवाह कर दिया। श्रेणिक श्वसुरगृह में अपनी पत्नी नन्दा के साथ इन्द्र और इन्द्राणी के सदृश गृहस्थ सम्बंधी भोगों का आस्वादन करने लगा। कुछ समय पश्चात् नन्दा देवी गर्भवती हो गयी और यथाविधि गर्भ का पालन करने लगी। - उधर राजकुमार श्रेणिक के बिना पता दिये चले जाने से राजा प्रसेनजित बहुत चिन्ताग्रस्त रहते थे। उन्होंने उस की बहुत खोज की पर सफलता न मिली। अन्त में बहुत समय के पश्चात् लोगों की श्रुति परम्परा से सेठ की प्रसिद्धि सुनी और वेन्नातट में अपने सैनिक श्रेणिक को बुलाने के लिए भेजे। उन्होंने वहां जाकर श्रेणिक से प्रार्थना की-"महाराज प्रसेनिजत आप के वियोग से बहुत दु:खी हैं। आप शीघ्र ही राजगृह में पधारें।" श्रेणिक ने राजपुरुषों की प्रार्थना को स्वीकार करके राजगृह जाने का संकल्प किया और अपनी पत्नी नन्दा को पूछकर तथा अपना परिचय सांकेतिक भाषा में कहीं लिख कर राजगृह की ओर प्रस्थान कर दिया।
देवलोक से च्यव कर नन्दा के गर्भ में आये हुए प्राणी के पुण्य प्रभाव से कुछ काल के पश्चात् नन्दा देवी को दौहद उत्पन्न हुआ कि-"क्या ही अच्छा हो, अगर मैं एक महान हाथी पर सवार होकर जनता में धन-दान देकर अभय दान दूं।" नन्दा ने यह भावना अपने पिता से कही और पिता ने राजा से प्रार्थना कर अपनी पुत्री का दौहद पूरा किया। समय बीतने पर प्रात:कालीन सूर्य के प्रतिबिम्ब सदृश दसों दिशाओं को प्रकाशित कर देने वाला पुत्र रत्न नन्दा की कुक्षि से उत्पन्न हुआ। दौहद के अनुरूप बालक का जन्मोत्सव मनाया और उस का अभयकुमार नाम रखा गया। वह सुकुमार बालक नन्दन वन के कल्पवृक्ष की भान्ति सुख पूर्वक वृद्धि पाने लगा। समय आने पर उसे पाठशाला में भेजा गया और यथासमय शास्त्र
अभ्यास तथा अन्य कलाओं का अभ्यास बालक ने अच्छी तरह से किया और थोड़े ही समय में वह एक सुयोग्य विद्वान बन गया। अकस्मात् एक दिन अभयकुमार ने अपनी माता से पूछा-"मां ! मेरे पिताजी कौन हैं
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