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१४. संख्याद्वार-एक समय में जघन्य एक, उत्कृष्ट 108 सिद्ध हों। १५. अल्पबहुत्व-पूर्वोक्त प्रकार से ही है।
___३. क्षेत्रद्वार मानुषोत्तर पर्वत जो कि कुण्डलाकार है, जिसके अन्तर्गत अढाई द्वीप और लवण तथा कालोदधि समुद्र हैं, उनमें कोई ऐसी जगह नहीं है, जहां से जीव ने सिद्ध गति को प्राप्त न किया हो। जब कोई जीव सिद्ध होता है, तो वह उपर्युक्त द्वीप-समुद्रों से ही हो सकता है। अढाई द्वीप से बाहर जंघाचरण और विद्याचरण लब्धि से ही जाया जा सकता है। परन्तु वहां रहते हुए जीव क्षपक श्रेणि में आरूढ़ नहीं हो सकता, उसके बिना केवलज्ञान नहीं हो सकता, केवलज्ञान हुए बिना सिद्ध गति प्राप्त नहीं कर सकता। यह द्वार समाप्त हुआ। इसमें भी 15 उपद्वार पहले की भान्ति समझ लेना।
४. स्पर्शद्वार जो भी सिद्ध हुए हैं, हो रहे हैं, जो आगे अनन्त सिद्ध होंगे, वे सब आत्मप्रदेशों से परस्पर मिले हुए हैं, जहां एक है, वहां अनन्त सिद्ध विराजित हैं। जहां अनन्त हैं, वहां एक है। प्रदेशों से वे एक दूसरे से मिले हुए हैं, जैसे हजारों-लाखों प्रदीपों का प्रकाश एकीभूत होने से किसी को किसी प्रकार की अड़चन या बाधा नहीं है, वैसे ही सिद्धों के विषय में समझ लेना चाहिए।
"फुसइ अणते सिद्धे, सव्वपएसेहिं नियमओ सिद्धो।
ते. उ असंखेज्जगुणा, देस पएसेहिं जे पुट्ठा ॥" यहां पर भी 15 उपद्वार पहले की तरह जानने चाहिएं। विशेषता न होने से उनका यहां वर्णन नहीं किया गया।
५. कालद्धार जिन क्षेत्रों से एक समय में 108 सिद्ध हो सकते हैं, वहां से निरन्तर आठ समय तक सिद्ध हों, जिस क्षेत्र में 20 या 10 सिद्ध हो सकते हैं, वहां चार समय तक निरन्तर सिद्ध हों, जहां से 2, 3, 4 सिद्ध हो सकते हैं, वहां दो समय तक निरन्तर सिद्ध हों, उक्तं च
"जहिं अट्ठसयं सिज्झइ, अट्ठ उ समया निरन्तरं कालो।
वीस दसएसु चउरो, सेसा सिज्झन्ति दो समए ॥" इसमें भी क्षेत्रादि उपद्वार घटाते हैं, जैसे कि
१. क्षेत्रद्वार-एक समय में 15 कर्मभूमि में 108 उत्कृष्ट सिद्ध होते हैं, वहां निरन्तर आठ-समय तक सीझें। अकर्मभूमि में तथा अधोलोक में चार समय तक सीझें। नन्दन वन,
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