________________
अंगुल असंख्य भागवुड्ढी तिरियं अहोवगाहेण वि अंगुलस्स असंखभागो चेव, एवं अधोलोगो वड्ढेयव्व जाव अधोलोगन्तो सत्तरज्जुओ, सत्तरज्जुप्पयरेहिन्तो उवरुवरिं कमे खुड्डागपयरा भाणियव्वा जाव तिरियलोगमज्झरज्जुप्पमाणा खुड्डागपयर त्ति, एवं खुड्डाग परूवणे कते इमं भण्णइ उवरिमं त्ति तिरियलोगमज्झाओ अधो जाव णवजोयणसए ताव इमीए रयणप्पभाए पुढवीए उवरिमखुड्डागप्पतरत्ति भणन्ति तदधो अधोलोगे जाव अहोलोइयगामवत्तिणो ते हिट्ठिम खुड्डागप्पतर, त्ति भणन्ति, रिजुमई अधो ताव पासतीत्यर्थः । अथवा अहोलोगस्स उवरिमा, खुड्डागप्पतरा, तिरियलोगस्स य हिट्ठिमा खुड्डागप्पयरा ते जाव पश्यतीत्यर्थः । '
अण्णे भणन्ति-उवरिमत्ति अधोलोगोपरि ठिया जे ते उवरिमा, के य ते? उच्यतेसव्वतिरियलोग वत्तिणो तिरियलोगस्स वा अहो णवजोयणसयवत्तिणो ताण चेव जे हेट्ठिमा ते जाव पश्यतीत्यर्थः, इमं ण घडइ अहोलोइयगाम मणपज्जवणाण संभवबाहल्लत्तणतो, उक्तं च
“इहाधोलौकिकान् ग्रामान्, तिर्यग्लोकविवर्त्तिनः । मनोगतांस्त्वसौ भावान्, वेत्ति तवर्तिनामपि ॥ "
इन दोनों आचार्यों का अभिप्राय इतना ही है कि मध्यलोक 1800 योजन का बाहल्य मेरुपर्वत के समतल भूमि भाग से 900 योजन ऊपर ज्योतिष्क मण्डल के चरमान्त तक और 900 योजन नीचे क्षुल्लक प्रतर तक, जहाँ लोकाकाश के 8 रुचक प्रदेश हैं; वहाँ तक मध्यलोक कहलाता है।
आठ रुचक प्रदेशों के समतल प्रतर से 100 योजन नीचे की ओर पुष्कलावती विजय है, उसमें भी मनुष्यों की आबादी है। तीर्थंकर देव का शासन भी चलता है। 32 विजयों में वह भी एक विजय है । वहाँ से एक समय में अधिक से अधिक 20 सिद्ध हो सकते हैं। वहाँ सदा चौथे आरे जैसा भाव बना रहता है। सूर्य-चन्द्र, ग्रह-नक्षत्र और तारे वहाँ पर भी इसी प्रकार प्रकाश देते हैं तथा प्रभाव डालते हैं, जैसे कि यहां। वह विजय मेरु के समतल भूमि भाग से हजार योजन नीचे की ओर तथा मध्यलोक की सीमा से सौ योजन नीची दिशा की ओर है। मनः पर्यवज्ञानी मध्यलोक में तथा पुष्कलावती विजय में रहे हुए 'संज्ञी मनुष्य और तिर्यंचों के मनोगत भावों को भलीभान्ति जानते हैं | उपयोग लगाने पर ही वे मन और तद्गत भावों को प्रत्यक्ष जानते व देखते हैं। मन की पर्याय ही मनःपर्याय ज्ञान का विषय है।
कालतः-मन: पर्यायज्ञानी मात्र वर्तमान को ही नहीं प्रत्युत अतीत काल में पल्योपम के असंख्यातवें भाग पर्यन्त और इतना ही भविष्यत् काल को अर्थात् मन की जिन पर्यायों को हुए पल्योपम का असंख्यातवां भाग हो गया है और जो मन की अनागत काल में पर्यायें होंगी,
1. प्रतर का विषय वर्णन व्याख्याप्रज्ञप्ति सूत्र शo 13, 304 में जिज्ञासुओं को अवश्य पढ़ना चाहिए ।
243