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तथा उनके द्वारा चिन्तनीय द्रव्य या वस्तु को मनःपर्यवज्ञानी स्पष्ट रूप से जानता व देखता है, वे चाहे तिर्यञ्च हों, मनुष्य या देव हों, उनके मन की क्या-क्या पर्यायें हैं, कौन-कौन, किन-किन वस्तुओं का चिन्तन करता है, इत्यादि उपयोग पूर्वक वह सब कुछ जानता व देखता है।
क्षेत्रतः-लोक के ठीक मध्य भाग में आकाश के आठ रुचक प्रदेश हैं जहाँ से 6 दिशाएं और चार विदिशाएं प्रवृत्त होती हैं-पूर्व, पश्चिम, दक्षिण, उत्तर, ऊपर और नीचे, इन्हें विमला तथा तमा भी.कहते हैं, ये छः दिशाएं कहलाती हैं। आग्नेय, नैऋत, वायव और ईशान इन्हें विदिशा-कोण भी कहते हैं। मानुषोत्तर पर्वत कुण्डलाकार है, उसके अन्तर्गत अढाई द्वीप और समुद्र हैं। उसे समयक्षेत्र भी कहते हैं। उसकी लंबाई-चौड़ाई 45 लाख योजन की है। इससे बाहर देव और तिर्यञ्च रहते हैं, मनुष्यों का अभाव है।
समय क्षेत्र में रहने वाले समनस्क जीवों के मन की पर्यायों को मन:पर्यवज्ञानी जानता व देखता है। विमला दिशा में सूर्य-चंद्र, ग्रह-नक्षत्र और तारों में रहने वाले देवों के तथा भद्रशाल वन में रहने वाले संज्ञी जीवों के मन की पर्यायों को भी मन:पर्यवज्ञानी प्रत्यक्ष करते हैं। नीचे पुष्कलावती विजय के अन्तर्गत ग्रामनगरों में रहे हुए संज्ञी जीवों के मन की पर्यायों को उपयोग पूर्वक प्रत्यक्ष करते हैं। यह मनःपर्यायज्ञान का उत्कृष्ट विषय-क्षेत्र है।
वृत्तिकार इसका सविस्तर विवेचन निम्न प्रकार से लिखते हैं
“अथ किमिदं क्षुल्लकातर इति? उच्चते, इह लोकाकाशप्रदेशा उपरितनाधस्तनदेशरहिततया-विवक्षिता मण्डकाकारतया व्यवस्थिताः प्रतरमित्युच्यते, तत्र तिर्यग्लोकस्योर्ध्वाधोऽपेक्षयाऽष्टादशयोजनशतप्रमाणस्य मध्यभागे द्वौ लघुक्षुल्लकप्रतरौ, तयोर्मध्यभागे जम्बूद्वीपे रत्नप्रभाया बहुसमे भूमिभागे मेरुमध्येऽष्टप्रादेशिको रुचकः, तत्र गोस्तनाकारश्चत्वार उपरितनाः प्रदेशाश्चत्वारश्चाधस्तनाः, एष एव रुचकः सर्वासां दिशां विदिशां वा प्रवर्तकः, एतदेव च सकलतिर्यग्लोकमध्यं, तौ च द्वौ सर्वलघूप्रतरावंगुलासंख्येयभागबाहल्यावलोकसंवर्तितौ रज्जुप्रमाणौ, तत एतयोरुपर्यन्येऽन्ये प्रतरास्तिर्यगंगुलासंख्येयभागवृद्धया वर्द्धमानास्तावद्रष्टव्य यावदूर्ध्वलोकमध्यं, तत्र पञ्चरज्जुप्रमाणः प्रतरः, तत उपर्यन्येऽन्ये प्रतरास्तिर्यगंगुलासख्येयभागहान्या हीयमानास्तावदवसेया यावल्लोकान्ते रज्जुप्रमाणः प्रतरः। इह ऊर्ध्वलोकमध्यवर्त्तिनं सर्वोत्कृष्टं पञ्चरज्जुप्रमाणं प्रतरमवधीकृत्यान्ये उपरितनाधस्तनाश्च क्रमेण हीयमानाः२ सर्वेऽपि क्षुल्लकप्रतरा इति व्यवह्रियन्ते यावल्लोकान्ते तिर्यग्लोके च रज्जुप्रमाणप्रतर इति। तथा तिर्यग्लोकमध्यवर्तिसर्वलघुक्षुल्लकप्रतरस्याधस्तिर्यगंगुलासंख्येयभागवृद्धया वर्द्धमानाः२ प्रतरास्तावद्वक्तव्या यावदधोलोकान्ते सर्वोत्कृष्टः सप्तरज्जुप्रमाणः प्रतरः, तं च सप्तरज्जुप्रमाणं प्रतरमपेक्ष्यान्ये उपरितनाः सर्वेऽपि क्रमेण हीयमानाः क्षुल्लकप्रतरा अभिधीयन्ते यावत्तिर्यग्लोकमध्यवर्ती
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