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________________ (५) भाषा-पर्याप्ति - जिस शक्ति के द्वारा आत्मा भाषा वर्गणा के पुद्गलों को ग्रहणकर भाषापने परिणत करता है, उसे भाषा - पर्याप्ति कहते हैं। (६) मन: पर्याप्ति - जिस शक्ति के द्वारा आत्मा मनोवर्गणा - पुद्गलों को ग्रहणकर, उन्हें मन के रूप में परिणत करता है, उसे मनःपर्याप्ति कहते हैं। मन पुद्गलों का अवलंबन लेकर ही जीव संकल्प - विकल्प करता है। , आहार पर्याप्ति एक समय में ही हो जाती है, जैसे कि कहा है- "प्रथम आहारपर्याप्तिस्ततः शरीरपर्याप्तिस्तत इन्द्रियपर्याप्तिरित्यादि । आहार पर्याप्तिश्च प्रथमसमय एव निष्पद्यते, शेषास्तु प्रत्येकमन्तर्मुहूर्तेन'' जिस जीव में जितनी पर्याप्तियां पाई जाती हैं, वे सब हों, उसे पर्याप्त कहते हैं। एकेन्द्रिय में पहली चार हो सकती हैं। विकलेन्द्रिय और असंज्ञी पंचेन्द्रिय में पांच पर्याप्तियां हो सकती हैं, मन नहीं। संज्ञी मनुष्य में 6 पर्याप्तियां पाई जाती हैं। यदि उनमें से न्यून हों, तो उसे अपर्याप्त कहते हैं। यदि 6 पर्याप्तियां पूर्ण हों, तो उसे पर्याप्त कहते हैं। प्रथम आहार पर्याप्ति को छोड़कर शेष पर्याप्तियों की समाप्ति अन्तर्मुहूर्त में ही हो जाती है, जैसे कि कहा भी है- " यथा शरीरादिपर्याप्तिषु सर्वासामपि च पर्याप्तीनां परिसमाप्तिकालोऽन्तर्मुहूर्त-प्रमाणः।” इस स्थान में लब्धि अपर्याप्त और करण अपर्याप्त' दोनों का निषेध किया गया है। अतः जो पर्याप्त हैं, वे ही मनुष्य, मनः पर्यवज्ञान को प्राप्त कर सकते हैं। मूलम् - जइ पज्जत्तग- - संखेज्जवासाउय-कम्मभूमिय-गब्भवक्कंतियमणुस्साणं, किं सम्मदिट्ठि- पज्जत्तग-संखेज्जवासाउय-कम्मभूमियगब्भवक्कंतिय-मणुस्साणं, मिच्छदिट्ठि - पज्जत्तग-संखेज्जवासाउय - कम्मभूमिय-गब्भवक्कंतिय- मणुस्साणं, सम्मामिच्छदिट्ठि-पज्जत्तगसंखेज्जवासाउय - कम्मभूमिय - गब्भवक्कंतिय- मणुंस्साणं ? गोयमा ! सम्मदिट्ठि-पज्जत्तग-संखेज्जवासाउय- कम्मभूमिय-गब्भवक्कंतियमणुस्साणं, नो मिच्छदिट्ठि - पज्जत्तग-संखेज्जवासाउय-कम्मभूमियगब्भवक्कंतिय- मणुस्साणं, नो सम्मामिच्छदिट्ठि-पज्जत्तंग-संखेज्जवासाउयकम्मभूमि- गब्भवक्कंतिय- मणुस्साणं । छाया-यदि पर्याप्तक-संख्येयवर्षायुष्क- कर्मभूमिज-गर्भव्युत्क्रान्तिक- मनुष्याणां, किं सम्यग्दृष्टि-पर्याप्तक-संख्येयवर्षायुष्क-कर्मभूमिज-गर्भव्युत्क्रान्तिक- मनुष्याणां, मिथ्यादृष्टि - पर्याप्तक-संख्येयवर्षायुष्क-कर्मभूमिज-गर्भव्युत्क्रान्तिक- मनुष्याणां, 1. जिन्होंने पर्याप्त बनना ही नहीं, अपर्याप्त अवस्था में ही काल कर जाना है, उन्हें लब्धि पर्याप्त कहते हैं और जिन्होंने नियमेन अपर्याप्त से पर्याप्त बनना है, वे करणपर्याप्त कहलाते हैं। 228
SR No.002205
Book TitleNandi Sutram
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAtmaramji Maharaj, Shiv Muni
PublisherBhagwan Mahavir Meditation and Research Center
Publication Year2004
Total Pages546
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_nandisutra
File Size12 MB
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